पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५८५

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रंध्रागत २८७६ रउताई रंधागत-संज्ञा पुं० [सं०] धोबों के गले में होनेवाला एक प्रकार ससुर बहू थुरहथी जानि । रूप रहँचटे लगि लग्यो मांगन का रोग। सब जग आनि ।-बिहारी। रंथा-संज्ञा पुं० [हिं० रंभा ] (१) दे. "रंभा"। (२) जुलाहों का र-संचा पुं० [सं०] (१) पावक । अंति। (२) कामाग्नि । (३) लोहे का एक औज़ार जो लगभग एक गज़ लंबा होता है। सितार का एक बोल । (५) जलना । झुलसना । (५) यह जमीन में गाद दिया जाता है और इसमें तानी की आँच । ताप। गरमी। रस्सी बाँधी जाती है। वि० तीक्ष्ण । प्रखर । रंभ-संज्ञा पुं० [सं०] (१) बाँस। (२) एक प्रकार का बाण। | रअय्यत-संज्ञा स्त्री० [अ०] (१) प्रजा । रिआया । (२) (३) पुराणानुसार महिषासुर के पिता का नाम । काश्तकार। इसने महादेव से वर पाकर महिषासुर को पुत्र रूप । रइअत-संज्ञा स्त्री० दे० "रअय्यत"। में प्राप्त किया था। यह भी कहा जाता है कि यही रइको-क्रि० वि० [हिं० रची+को (प्रत्य॰)] ज़रा भी । तनिक दूसरे जन्म में रक्तबीज हुआ था । (४) भारी शब्द। भी। कुछ भी उ०-ऐसी अनहोन लाज मानति कह्यो न कलकल । हलचल । उ०-माथेरभ समुद जस होई 1- देव होन कहूँ पाप रहको सी होन पाउरी।-देव। जायसी। रइनि -संज्ञा स्त्री० [सं० रजनी+प्रा. रयणी ] रात । रात्रि । रंभा-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) केला (२) गौरी । (३) गौ,का , निशि । उ०—(क) रइनि रेनु होइ रबिहि गरासा। मानुस भाना या चिल्लाना । (४) उत्तर दिशा । (५) वेश्या। पंसि लेहि फिरि बासा । —जायसी । (ख) जहाँ जास (६) पुराणानुसार एक प्रसिद्ध अप्सरा। रहनियाँ तहवाँ जाहु । जोरि नयन निरलजवा कत मुसु- संज्ञा पुं० [सं० रंभ ] लोहे का वह मोटा भारी डंडा काहु।-रहिमन । जिसकी सहायता से पेशराज आदि दीवारों में छेद करते । री-संज्ञा ली० [सं० रय=हिलाना ] दही मथने की लकड़ी । या इसी प्रकार के और काम करते हैं। मथानी । खैलर । उक-बासुकी नेति अरु मंदराचल रई रंभा तृतीया-संवा स्त्री० [सं०] ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया । पुराणानुसार कमठ में आपनी पीठ धान्यो।---सूर । इस तिथि को यत करने का विधान है। क्रि० प्र०-चलना ।—चलाना ।-फेरना। रंभाना-कि० अ० [सं० रंभण ] गाय का बोलना । गाय का शब्द संज्ञा स्त्री० [हिं० रवा ] (1) गेहूँ का मोटा आटा । दरदरा करना । उ०-बाजत बेगु बिषाण सबै अपने रंग गावत । आटा । (२) सूजी। (३) चूर्णमात्र । उ.-चूरी करिहै मुरली धुनि गौ रंभि चलत पग धूरि उड़ावत ।--सूर। रई। हरिश्चंद्र। क्रि० स० गी से रंभण कराना । गौ को शब्द करने में। वि० स्त्री० [हिं० रयना, रचना-सं० रंजन ] (1) डूबी हुई। प्रवृत्त करना। पगी हुई। (२) अनुरक्त । उ.--(क) कहत परस्पर आपुस रंभापति-संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र । में सब कहाँ रहीं हम काहि रई।-सूर । (ख) स्वांग सूची रंभाफल-संज्ञा पुं० [सं०] केला । साधु को, कुचालि कलि ते अधिक, परलोक फीकी, मति रभित-वि० [सं०] (1) शब्द किया हुआ। बोलाया हुआ । लोक-रग-रई ।-तुलसी। (ग) उरहन देन चली जसुमति (२) बजाया हुआ। को मनमोहन के रूप रई। सूर । (घ) माधो राधा के रंभिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] एक रागिनी जो भैरव राग की पुत्र रंग राचे राधा माधो रग रई। —सूर । (३) युक्त । बधू मानी जाती है। सहित । संयुक्त । उ०--(क) बीस बिसे बलवंत हुते जो रंभी-संज्ञा पुं० [सं० रंभिन् ] (1) वह जो हाथ में बैंत या दंड हती हग केशव रूप-रई जू ।-केशव । (ख) करिये युत लिये हुए हो। (२) बुड्ढा आदमी । वृद्ध। (३) द्वारपाल । भूषण रूप रई। मिथिलेश सुताइक स्वर्गमई। केशव । दरखान। (४) मिली हुई। रंभोरु-वि० [सं०] (१) (स्त्री जिसकी) केले के वृक्ष के समान रईस-संज्ञा पुं० [अ० ] (१) वह जिसके पास रियासत या उतार चढ़ाववाली जाँधे हों। (२) सुदर । खूबसूरत । इलाका हो। तंभल्लुकेदार। भूस्वामी। सरदार । (२) प्रति- रह-संज्ञा पुं० [सं० रहस् ] वेग । गति। तेजी। ष्ठित और धनवान् पुरुष । बड़ा आदमी। अमीर । धनी। रहवटा-संज्ञा पुं० [ दि. रहस+चाट } मनोरथ-सिद्धि की जैसे,—उसकी दावत में शहर के बड़े बड़े रईस आए थे। लालसा । लालच । चस्का । उ०—(क) ज्यौं ज्यौं आवत रउताई -संशा पुं० [हिं० रावत+आई (प्रत्य॰)] मालिक होने निकट निसि स्यौं त्यो खरी उताल । शमकि समकि टहलें का भाव । प्रभुत्व । स्वामित्व । उ.-धनि सो खेल खेल कर लगी रे बाल -बिहारी व कन देखो सौंप्यो। सह पेमा ।जिलाई उ कमल खेमा ।-जायसी।