पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५७८

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यौवन २८६९ यौवन-संशा पुं० [सं०] (1) अवस्था का वह मध्य भाग जो । स्त्रियों की छाती । स्तन । कुच । बाल्यावस्था के उपरांत आरंभ होता है और जिसकी : यौवनाधिरूढ़ा-वि० [सं०] युवती । जवान (स्त्री)। समाप्ति पर वृद्धावस्था आती है। इस अवस्था के अच्छी यौवनाश्व-संज्ञा पुं० [सं०] मांधाता राजा का एक नाम । वि. तरह आ चुकने पर प्रायः शारीरिक बाद रुक जाती है और : दे. "मांधाता"। शरीर बलवान तथा हृष्ट हो जाता है। साधारणतः यह यौवनिक-वि० [सं०] यौवन संबंधी । यौवन का। अवस्था १६ वर्ष से लेकर ६० वर्ष तक मानी जाती है। यौवनोद्भव-संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव । (२) युवा होने का भाव । तारुण्य । जवानी । (३) दे० यौवराजिक-वि० [सं०] युवराज संबंधी । युवराज का । "जोबन" । (४) युवतियों का दल। यौवराज्य-संज्ञा पुं० [सं० (१) युवराज होने का भाव । (२) यौवनकंटक-संशा पुं० [सं०] मुँहासा, जो युवावस्था में , युवराज का पद । होता है। । यौवराज्याभिषेक-मंशा पु० [सं० } वह अभिषेक और उपके यौवनपिडका-संज्ञा पुं॰ [सं० } मुँहाया । संबंध का कृत्य तथा उत्सव आदि जो किसी के युवराज यौवनलक्षण-संज्ञा पुं० [सं०] (1) लावण्य । नमक । (२) बनाए जाने के समय हो । युवराज के अभिषेक कृत्य । र र-हिंदी वर्णमाला का पत्ताईसा व्यंजन जिसका उरचारण जीभ के अगले भाग को मूर्दा के साथ कुछ स्पर्श कराने से होता है। यह स्पर्श वर्ण और ऊम वर्ण के मध्य का वर्ण है। इसका उच्चारण स्वर और व्यंजन का मध्यवर्ती है। इसलिए इसे अंतस्थ वर्ण कहते है। इपके उच्चारण में संवार, नाद और घोष नामक प्रयत्न होते हैं। रंक-वि० [सं.] धनहीन । गरीव । दरिद्र । कंगाल । उ.--' (क) बहिरो सुनै मृक पुनि बोलै रंक चलै सिर छत्र धराई। ---सूर । (ग्व) ऊँचे नीचे बीच के धनिक रंक राजा राय हठान बजाय कर डीति पीठि दई है।-तुलसी। (२) कृपण | कंजूस । (३) सुम्त । काहिल । आलसी । रंकु-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हिरन जिसकी पीट पर मफेद चिसियाँ होती है। रंग-संज्ञा पुं० [सं० 1 (9) राँगा नामक धातु । (२) नृत्य-गीत आदि । नाचना गाना। यौ०-नाच रंग। जैग्ने,-वहाँ आजकल खूब नाच रंग हो उसके आकार का और दूसरा उपके रंग का । वैज्ञानिकों ने मिन्छ किया है कि रंग वास्तव में प्रकाश की किरणों में ही होता है; और वस्तुओं के भिन्न भिन्न रासायनिक गुणों के कारण ही हमारी आँग्बों को उनका अनुभव वस्तुओं में होता है। जब किसी वस्तु पर प्रकाश पड़ता है, तब उस प्रकाश के तीन भाग होते हैं। पहला भाग तोपरावर्तित हो जाता है। इसरा वर्तित हो जाता है; और तीसरा उस वस्तु के द्वारा सोख लिया जाता है। परंतु सब वस्तुओं में ये गुण समान रूप में नहीं होते; किमी में कम और किमी में अधिक होते है । कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं, जिनमें से प्रकाश परावर्तित होता ही नहीं, या तो वर्तित होता है या सोख लिया जाता है; जैसे, शुद्ध जल । ऐसे पदार्थ प्रायः बिना रंग के दिग्बाई देते हैं। जिन पदार्थों पर पड़नेवाला सारा प्रकाश परावर्तित हो जाता है, वे इयंत दिग्वाई परते है। और जो पदार्थ अपने ऊपर पड़नेवाला समस्त प्रकाश सोख लेते हैं, वे काले होते या दियाई देते । प्रकाश का विश्लेषण करने से उसमें अनेक रंगों की किरणें मिलती हैं, जिनमें ये सात रंग मुख्य है-बैंगनी, नील, श्याम या आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल । जब ये सातों रंग मिलकर एक हो जाने हैं, तब हम उसे सफेद कहते हैं और जब इन सातों में से एक भी रंग नहीं रहता, तब हम उसे काला कहते हैं। अब पदि किसी ऐसे पदार्थ पर श्वेत प्रकाश पड़े, जिसमें लाल किरणों को छोड़ कर और सब रंगों की किरणों को सोख लेने की शक्ति हो, तो स्वभावतः प्रकाश का केवल लाल ही अंश उप पर बच रहेगा; और उस दशा में हम उम्प पदार्थ को लाल रंग का (३) वह स्थान जहाँ नृत्य या अभिनय होता हो । नाचने, गाने, नाटक करने आदि के लिए बनाया हुआ स्थान । यौ०-रंगमंच । रंगभूमि । रंगद्वार । रंगदेवता आदि । (४) युद्धस्थल । रणक्षेत्र । लड़ाई का मैदान । (५) खदिर- सार । (६) किसी दृश्य पदार्थ का वह गुण जो उसके । आकार से भिन्न होता है और जिसका अनुभव केवल आँखों : से ही होता है। वर्ण। विशेष---जब किसी पदार्थ पर पहले पहल हमारी दृष्टि जाती है, तब प्रायः हमें दो ही बातों का ज्ञान होता है। एक तो