पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५६

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बकवास २३४९ बकी घकवास-संज्ञा स्त्री० [हिं० एकना+वास (प्रत्य॰)] (1) बक-: तेहि काल करोई है आयो काल सुनत श्रवण बकप्तीस वाद । ध्यर्थ की बातचीत । बकबक । एक देश की। केशव । (ख) आप चढ़ी सीस मोहि क्रि०प्र०—करना-मचाना । होना । दीन्हीं बकसीस औ हजार सीसवारे की लगाई अटहर (२) यकत्रक करने की लत । बकवाद मचाने का स्वभाव ।। है। पभाकर । (ग) निकसे असीम दै दै लै लै षकसीसैं (३) बकयाद करने की इच्छा। देव अंग के वसन मनि मोती मिले मेले के |--देव क्रि० प्र०-लगना। . बकसुश्रा, बकसुवा-संज्ञा पुं० ० "बकलस"। बकत्ति -संशा पुं० [सं० वकवृत्ति ] वह पुरुष जो नीचे साफने- | धकाइन-संज्ञा पुं० दे० "बकायन"। वाला, शठ और स्वार्थ साधने में तत्पर तथा कपटयुक्त हो। बकाउर-संशा स्त्री० दे. "बकावली"। बकम्यान लगानेवाला मनुष्य । घकाना-क्रि० स० [हिं० ( बकना) का प्रेरण. रूप] (1) वि. कपटी । धोखेबाज़। बकबक करने पर उग्रत करना । बकबक कराना । (२) बकग्रती-वि० [सं० वकसिन् ] बकवृत्तिवाला । कपटी। कहलाना । रटाना। उ०-गहे अँगुरिया तात की नँद बकस-संशा पुं० [ अं० बाक्स ] (1) कपदे आदि रखने के लिए चलन सिखावत । अरबराइ गिरि पदत है कर टेकि उठावत । बना हुआ चौकोर सन्दूक । (२) घड़ी गहने आदि रखने बार बार बकि श्याम सों कछु बोल बकावत । दुहुँचा द्वै के लिए छोटा डिडया। खाना । जैसे, घड़ी का बक्स, दैतुली भई अति मुत्र छवि पावत ।-सूर । गले के हार का बकस। बकायन-संज्ञा पुं० [हिं० बटका+नीम ? ] नीम की जाति के एक बफसना*-क्रि० स० [फा० बबश+हिं० ना] (1) कृपापूर्वक पेड़ का नाम जिसकी पत्तियाँ नीम की पत्तियों के महश पर देना ।प्रदान करना। उ०—(क) प्रभु बकसत गज बाजि वसन उनमे कुछ बड़ी होती हैं। इसका पेड़ भी नीम के पेड़ से मनि जय धुनि गगन निसान हये । पाइ सखा सेवक जाचक बना होता है। फल नीम की तरह पर नीलापन लिए भरि जन्म न दूसर द्वार गये ।-सुलसी । (ख) नासिफ ना होता है। इसकी लकड़ी हलकी और सफेद रंग की होती महसुक है ध्याह अनंग । बेसर को छवि बकसप्त मुकुतन है। इससे घर के संगहे और मेज़ कुरसी आदि बनाई संग। रहीम । (२) छोड़ देना । क्षमा करना । माफ़ जाती हैं और इस पर वारनिश और रंग अच्छा खिलता करना । उ॰—(क) तब देवकी अधीन को यह मैं नहि है। लकड़ी नीम की भाँति कडुई होती है, इससे उसमें बालक जायो। यह कन्या मोहि बकस बीर तू कीजै मो मन दीमक वुन आदि नहीं लगते । वैद्यक में इसे कफ, पित्त भायो। सूर । (ख) कन्हैया तू नहिं मोहि डरात।..... और कृमि नाशक लिखा है और बमन आदि को दूर करने ............"पूत सपूत भयो कुल मेरे अब मैं जानी बात । वाला और रक्त शोधक माना है। इसके फूल, फल, छाल सूरझ्याम अबलौं तोहि बकस्यो तेरी जानी घात 1-सूर । और पत्तियाँ औषध के काम आती है। बीजों का तेल यकसा-संज्ञा पुं॰ [ देश ] एक प्रकार की घास जो पानी में या मलहम में पड़ता है। इसके पेड़ समस्त भारतवर्ष में जलाशयों के किनारे होती है। चौपाये इसे बड़े चाव से और पहाड़ों के ऊपर तक होते हैं। यह बीज से उगता है। खाते हैं। पर्या--महानिंब । देका । कामुक । केटर्य । केशमुष्टिक । बकसाना-+-क्रि० स० [हिं० बख्शना ] "बकसना" का प्रेरणार्थक | पवनेष्ट । रम्यकक्षीर । काकडा पार्वत । महातिक्त । रूप । क्षमा कराना। माफ कराना । उ०—(क) चूक परी बकाया-संज्ञा पुं० [अ०] (१) बचा हुआ। बानी। शेष । मोते में जानी मिलें श्याम बकसाऊँरी। हाहा करि दसनन (२) बचत । तृण धरि धरि लोचन जलनि दराऊँ री । सूर । (ख) बकारि-संशा . [सं० वकारि] बकासुर को मारनेवाले, श्रीकृष्ण । पूजि उठे जब ही शिव को तब ही विधि शुक वृहस्पति : बकारी-संज्ञा त्रा० | सं० 'वकार या वाक्य ] वह शब्द जो मुँह से आए । के विनती मिस कश्यप के तिन देव अदेव सबै प्रस्फुटित हो । मुँह से निकलने वाला शब्द । बकसाए। केशव । क्रि० प्र०-निकलना। बकसी-संज्ञा पुं० दे. "बस्शी"। मुहा०-बकारी फूटना मुंह से शब्द वा वर्णों का उच्चारण बकसीला-वि० [हिं० बकठाना ] जिसके खाने में मुँह का स्वाद होना । शब्द निकलना । बात निकलना । बिगड़ जाय और जीभ ऐंठने लगे। बकावली-संज्ञा स्त्री० दे० "गुलबकावली"। बकसीस*-संज्ञा स्त्री॰ [फा० बस्नशिश ] (१) दान । उ०—प्रेम ! बकासुर-संज्ञा पुं० [सं० वकासुर एक दैत्य का नाम जिसे कृष्ण समेत राय सब लीन्हा । भर बकसीस जाचकन्ह दीन्हा।-- ने मारा था । तुलसी । (२) इनाम । पारितोषिक | उ.--(क) केशोदास । बकी-संज्ञा स्त्री० [सं० वकी ] बकासुर की बहिन पूतना का एक