पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५१३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मृगधर २८०४ मृगांक मृगधर-संक्षा पुं० [सं० ] चंद्रमा । मृगयू-संथा पुं० [सं०] (1) ब्रह्मा । (२) गीदा। (३) म्याध । मृगधूम-संशा पु० [सं० ] एक प्राचीन तीर्थ का नाम । मृगरसा-संशा स्त्री० [सं० ] सहदोहया नाम का पौधा । सहदेवी। मृगधूर्त-संज्ञा पु० [सं०] गाल। महाबला। मृगनाथ-संज्ञा पुं० [सं०] सिंह। मृगराज-संज्ञा पुं॰ [सं०] सिंह। विशेष-'मृग' शब्द के आगे पति, नाथ, राज आदि शब्द मृगराटिका-संशा स्त्री० [सं०] जीवती । लगने से सिंहवाचक शब्द बनता है। मृगरोग-संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों का एक घातक रोग जिसमें वे मृगनाभि-संशा पुं० [सं०] कप्सूरी। जल्दी जल्दी साँस लेते हैं और उनके नथुने सूज से आते हैं। मृगनाभिजा-संशा स्त्री० [सं०] कस्तूरी। मृगरोचन-संशा पुं० [सं० ] कस्तूरी । मुश्क । मृगनेत्रा-संज्ञा स्त्री० [सं०] मृगशिरा नक्षत्र से युक्तरात्रि । अगहन मृगलांछन-संज्ञा पुं० [सं० ] चंद्रमा। महीने के बीसवें दिन के २० दंड के उपरांत से लेकर मृगलेखा-संशा स्त्री० [सं० ] चंद्रमा का धना । संक्रांति तक के काल को मृगनेत्रा कहते हैं, जिसमें श्राद्ध, मृगलोचना-वि. स्त्री० [सं० हरिण के समान नेत्रवाली (स्त्री०)। नवान आदि वर्जित है। मृगलोचनी-सहा स्त्री० दे० "मृगलोचना"। मृगपति-संज्ञा पुं॰ [सं०] सिंह। मृगव-संज्ञा पुं० [सं० ] बौद्ध शास्त्रों के अनुसार एक बहुत बड़ी मृगपद-संशा पुं० [सं०] (1) मृग का पैर। (२) मृग के खुर का चिल या गड्ढा जो जमीन पर गया हो। मृगवल्लभ-संज्ञा पुं० [सं०] कुंदुरु तृण । मृगपालिका-संशा स्त्री० [सं०] कस्तूरी मृग । मृगवारि-संचा पुं० [सं०] मृगतृष्णा का जल । उ--सूते सपने मृगविप्लु-संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। ही सहै संसृत संताप रे । बूडो मृगवारि खायो जेवरि के मृगप्रिय-संज्ञा पुं० [सं०] (1) भूतृण । (२) जल-कदली। साँप रे।-मुलसी। मृगभक्षा-संशा भी. [सं०] (1) जटामासी । (२) इंदवारुणी। मृगवाहन-संज्ञा पुं॰ [सं.] वायु । इंद्रायन । मृगवीथी-संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष के अनुसार शुक्र की नौ मुगभद्र-संज्ञा पुं० [सं० ] हाधियों की एक जाति । उ०—भद्र वीगियों में से एक जिसमें शुक्र ग्रह अनुराधा, ज्येष्ठा और और मृगभद्र आदि बहु जे जग जाति विक्याती।-रघुराज मूल पर आता है। मृगमंदा-संज्ञा श्री. ( सं० ] कश्यप ऋषि की क्रोधवशा नानी मृगशिरा-संभा पुं० [ मं० मृगशिरस् ] ससाईस नक्षत्रों में से पत्री में उत्पन्न दस कन्याओं में से एक जिसने ऋक्ष, स्टमर । पाँचर्या नक्षत्र । और चमर जाति के मृग उत्पन्न हुए थे। विशेष-इसके अधिपति चंद्रमा है और यह आदा या मृगमंद्र-संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों की एक जाति । तिर्यमुख नक्षत्र है। यह तीन तारों से मिलकर बना हुआ मृगमद-संज्ञा पुं० [सं० ] कस्तूरी। और बिल्ली के पैर के आकार का है। आकाश में यह नक्षत्र मृगमदा-संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तरी। कन्या लम के बाईस पल बीतने पर उदित होता है। मृग- मृगमरीचिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] मृगतृष्णा । शिरा नक्षत्र के पूर्वार्द्ध में (अर्थात् ३० देर के बीच) मृगमातृक-संज्ञा पुं० [सं० ] लंबोदर मृग । कस्तूरी मृग । वृष राशि और अपराई में मिथुन राशि होती है। इस नक्षत्र मृगमित्र-संशा गु० [सं० jचंद्रमा। उ०-मृगमित्र बिलोकत में उत्पन्न मनुष्य मृगचक्षु, अति बलवान्, सुदर कपोलबाला, चित्त जरैलिये चंद्र निशाचरपद्धति को। केशव । कामुक, साहसी, स्थिर प्रकृति, मित्र-पुत्र से युक्त और थोड़ा मृगमद-सशा पुं० [सं० ] कस्तूरी । मुश्क । उ०—(क) सब ओर . धनवान होता है। लिप्यो मृगमेद महा । तम हेत भयो दिग भेद कहा |-- मृगशोष-संज्ञा पुं० [सं०] मृगशिरा नक्षत्र । गुमान । (ब) पुन्यन के जल घोरि घने घनसार मिले मृग- मृगसत्र-संज्ञा पुं० [सं० ] उग्रीस दिन का एक सत्र । मेद दहावत ।-गुमान । (ग) धोवा मिलै मृगमेद घस धन मृगांक-संज्ञा पुं० [सं०] (1) चंद्रमा । उ०—द्विजराज ससधर सार यो केसरि गारत बोलें।-देव । उदधि-तनय ससांक मृगांक । ददास । (२) एक रस मृगया-संज्ञा पुं० [ स.] शिकार । अहेर । आखेट । उ०—(क) जो सुवर्ण और रसादि से बनता है और क्षय रोग में विशेष हम छत्री मृगया बन करहीं । तुमसे खल मृग खोजत । उपकारी होता है। वि० दे० "मृगांक रस"13०-(क) राम फिरहीं।-तुलसी। (ख) एक दिवस मृगया को निकस्यो की रजार ते रसाइनी समीर सूख उसरि पयोधि पार सोधि कंठ महामणि लाइ ।--सूर । (ग) भूलि परी मृग को मृग ससाक लो। जातुधान बुट पुट पाक लंक जातरूप रतन पाहि भई मृगया की मृगी मृगननी।-देव । जतन जारि कियो है मृगांक सो।-तुलसी । (ख) किधौं