पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४९४

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मुरवी २७८५ मुरेर विश्वाम । (ग) रह्यो ढीठ ढारस गहै ससहर गयो न सूर | (२) अभिप्राय । आशय । मतलब । मुन्यौ न मन मुरवान चुभि भौ चूरन चपि चूर ।-बिहारी। क्रि० प्र०—रखना ।--लेना। (२) एक प्रकार की कपास जो ३-४ वर्ष तक फलती है। यो०-मुराद दावा-नालिश करने का अभिप्राय । दावा करने का +-संज्ञा पुं० दे० "मोर"। मतलब या उद्देश्य । मुरवी*-संज्ञा स्त्री० [सं० मौवा ] धनुष की डोरी । चिल्ला। मुरादी-संज्ञा पुं० [फा० ] बह जो कोई कामना रखता हो। मुरवैरी-संज्ञा पुं० [सं० मुरवैरिन् ] श्रीकृष्ण । मुरारि । अभिलाषी। आकांक्षी।। मुरव्वत-संज्ञा स्त्री० दे० "मुरौवत"। मुगना* +-क्रि० स० [ अनु० मुरमुर चबाने का शब्द ] मुँह में मुरशिद-संज्ञा पुं० [ 10 ] (1) गुरु । पथदर्शक । (२) पूज्य । कोई चीज़ सरकर उसे मुलायम करना । चुभलाना । (३) धूर्त । चालाक । उस्ताद । उ.-सोइ भीरी मुख मेलियो लगे मुरावन सोय । सोह मुरसुत-संज्ञा पुं० [सं०] मुर दैत्य का पुत्र वत्सासुर । उ० धीरी को राग मुख प्रगट लक्ष्यो सब कोय ।-मुराज । मुरुसुत हो प्रमोल सो जाई । गृह वसिष्ठ के देख्यो *-क्रि० स० दे० "मोड़ना"। गाई।-गोपाल। मुराफा-संज्ञा पुं० [अ० मुराफअ ] छोटी अदालत में हार जाने पर मुरस्सा-वि० [अ० मुरस्सः ] जड़ा हुआ । जड़ाऊ । जटिस। । बड़ी अदालत में फिर से दावा पेश करना । अपील । मुरस्साकार-संज्ञा पुं० [अ० मुरस्स:+फाकार ] गहनों में नग मुरार-संज्ञा पुं॰ [सं० मृणाल ] कमल की जड़ । कमलनाल। वा मणि जड़नेवाला । जदिया।

  • -संज्ञा पुं० दे. "मुरारि"।

मुरस्साकारी-संशा स्त्री० [अ० मुरस्स:+-फा० कारी ] गहनों में मुरारि-संघा पुं० [सं०] (१) मुर दैत्य के शत्र, विष्णु या श्रीकृष्ण । नग आदि जड़ने का काम । (२) गण के तीसरे भेद (151) की संज्ञा । (पिंगल) मुरहा-संशा पुं० [सं०] मुर को मारनेवाले, विष्णु या श्रीकृष्ण। मुरारी-संज्ञा पुं० दे० "मुरारि"। -वि० [सं० मूल (नक्षत्र)हा (प्रत्य॰)] [स्त्री० मुरही) मुरारे-संशा पुं० [सं०] हे मुरारि ! (संबोधन) उ.-बाल. (१) (बालक ) जो मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुआ हो। सखा की विपत-विहंडन संकट-हरन मुरारे ।-सूर । (ऐसा बालक माता-पिता के लिए दोषी माना जाता है।) मुरासा-संज्ञा पुं० [हिं० मुरना, मरका ] तरकी । कर्णफूल । उ०- (२) जिसके माता-पिता मर गए हों । अनाथ । यतीम। लस मुरासा तिय स्रवन यौं मुकुतनि दुति पाए । मानो (३) नटखट । उपद्रवी । शरारती। परस कपोल के रहे स्वेद-कन छाइ।-बिहारी । +-संज्ञा पुं० [हिं० मुराना ] वह जो चलते हुए कोल्हू में संज्ञा पुं० दे० "मुंडासा"। गदेरियाँ डालता है। मुरीद-संज्ञा पुं० [अ० ] (1) शिष्य । चेला । (२) वह जो किसी मुरहारी-संज्ञा पुं० [सं०] मुर दैत्य को मारनेवाले विष्णु या का अनुकरण करता या उसके आशानुसार चलता हो। श्रीकृष्ण । उ०-यके जगत समुझाय सब निपट पुराण अनुगामी। अनुयायी। पुकारि । मेरे मन वे चुमि रहे मधुमर्दन मुरहारि। केशव मुरु*-संज्ञा पुं० दे. "मुर"। उ०--मुरु-सुत होप्रमोल सो जाई। मुरा-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) एक प्रसिद्ध गंधदम्य जिसे एकांगी : गृह वशिष्ठ के देण्यो गाई।-गोपाल । या मुरामांसी भी कहते हैं। वि.दे. "एकांगी (३)"। मुरुआ-संशा पुं० [देश॰] एड़ी के ऊपर का घेरा। पैर का (२) कथा सारित्सागर के अनुसार उस नाइन का नाम गट्ठा । उ०—जो पाँव के मुरुओं में होता है। नूतना- जिसके गर्भ से महानंद का पुत्र चंद्रगुप्त उत्पस हुआ था। मृतसागर। मुराड़ा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] जलती हुई लकदी लुभाठा | उ.- | मुरुकुटिया-वि० दे. "मरकट"। हम घर जारा आपना लिया मुरादा हाय । भय पर जारी । मुरुख* -वि. दे. "मूर्ख" । उ.-दिसिटिवंत कहँ नीअरे अंध तासु का जो चले हमारे साथ। कबीर । मुरुख कहँ दूरि —जायसी। मुराद-संशा स्त्री० [अ०] (8) अभिलापा। छालालसा। मुरुछना*-कि० अ० दे० "मुरछना"। कामना। संज्ञा स्त्री० दे. "मूर्छना"। क्रि०प्र०-पूरी करना या होना ।-हासिल होना, आदि। मुरुझना*1-क्रि० अ० दे. "मुरझाना"। मुहा०-मुराद भाना-अभिलाषा पूरी होना। मुराद पाना- . मरेठा-संज्ञा पुं० [हिं० मूक-सिर+पठा (प्रत्य॰)] (1) पगड़ी। साफा। मनोरथ पूर्ण होना । मुराद मांगना-मनोरथ पूरा होने की क्रि०प्र०-बांधना। प्रार्थना करना । मुराद मानना-मन्नत मानना। मनौती करना।। (२) दे. "मुरैठा"। मुरादों के दिन युवावस्था । जवानी । | मुरेर-संज्ञा स्त्री० दे. "मरोड़"।