पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४८९

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मुद्राकर २७८० मुनादी बैठने, लेटने वा खड़े होने का कोई ढंग । अंगों की कोई : मद्रिक-संशा स्त्री० दे० "मुद्रिका"। उ.-कर कंकण केयूर मनो- स्थिति । (८) चेहरे का ढंग । मुम्ब की आकृति । मुख की हर दोत मोद मुद्रिक न्यारी ।-तुलसी। चेष्टा । उ०--मायावती अकेले इस बाग में टहल रही थी मुद्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) अंगूठी । उ.-और पाइ पौन- और एक ऐसी मुद्रा बनाये हुए थी, जिसमे मालूम होता था पुत्र डारि मुद्रिका दई । केशव । (२) कुश की बनी हुई फि यह किसी बड़े गंभीर विचार में मग्न है।-बालकृष्ण अँगूठी जो पितृ-कार्य में अनामिका में पहनी जाती है। भट्ट । (५) विष्णु के आयुधों के चिह्न जो प्राय: भक्त लोग पवित्री । पैंती। उ०—पहिरि दर्भ मुद्रिका सुभूरी। समिध अपने शरीर पर तिलक आदि के रूप में अंकित करते है . अनेक लीन्ह कर रूरी। मधुसूदन । (३) मुद्रा। सिक्का । या गरम लोहे से दगाते हैं। (जैसे-शंख, चक्र, गदा रुपया । उ०-नरसी पै जब संत सब कहे सकोपित आदि के चित्र ) छाप । (१०) तांत्रिकों के अनुसार कोई बैन । उग ठगि लीन्ही मुद्रिका चल्यो मारि तेहि लेन- भूना हुआ अन्न। (११) तंत्र में उँगलियों आदि की अनेक रघुराज। रूपों की स्थिति जो किसी देवता के पूजन में बनाई जाती मद्रित-वि० [सं०] (1) मुद्रण किया हुआ । अंकित किया है। जैसे, धेनु मुद्रा, योनि मुद्रा। (१२) हठ योग में : हुआ। छपा हुआ । (२) मुँदा हुआ। बंद । उ०--(क) विशेष अंगविन्याग्य । ये मुद्राएँ पाँच होती है । जैसे, स्वेधरी, नासिका अग्र की ओर दिये अध-मुद्रित लोचन कोर समा- भूचरी, चाचरी, गोचरी और उनमुनी। (१३) अगस्त्य । धित ।-देव । (ख) राजिव दल इंदीवर सतदल, कमल ऋषि की स्त्री, लोगमुद्रा। (१४) वह अलंकार जिसमें प्रकृत : कुलेसै जाति । निशि मुद्रित प्रातहि विगपत वे बिगखत या प्रस्तुत अर्थ के अतिरिस पत्र में कुछ और भी साभिप्राप दिन राति ।-सूर । (ग) नील कंज मुद्रित निहार निधमान नाम निकलते है । जैसे,—कत लपटैयत मो गरे सोन जुही ' भामु, सिंधु मकरंदहि अलिंद पान करिगो। (३) त्यागा निवि सैन । जेहि चकबरनी किये गुल अनार रंग नैन। हुआ। छोड़ा हुआ। बिहारी । (इस पद्य में प्रकृत अर्थ के अतिरिक्त 'मोगरा' मधा-कि० वि० [सं०] व्यर्थ । वृथा । बेफ़ायदा । उ०-(क) 'सोनजुही' 'चंपक' इत्यादि फूलों के नाम भी निकलते हैं।) ' यह सब जाग्यवाहक कहि राखा । देवि न हाइ मुधा मुनि मद्राकर- Y० [सं० ] (1) राज्य का बह प्रधान अधिकारी भाषा । तुलसी । (ख) तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहह । जिसके अधिकार में राजा की मोहर रहती है। (२) वह मुधा मान ममता मद बहह । -तुलसी। जो किसी प्रकार की मुद्रा तैयार करता हो। (३) बह जो वि० (1) व्यर्थ का । निष्प्रयोजन । (२) असत् । मिथ्या। किसी प्रकार के मुद्रण का काम करता दो। शठ । उ०-मुधा भेद जयपि कृत माया।—तुलसी। मद्रा कान्हड़ा-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का राग जिसमें सय : संज्ञा पुं॰ असत्य । मिथ्या । उ.--भूतल माहि बली शिव- कोमल स्वर लगते हैं। राज भो भूषन भाषत शत्रु मुधा को ।-भूषण। मद्राक्षर-संज्ञा पुं० [ स० (१) वह अक्षर जिसका उपयोग किमी मनका-संज्ञा पुं० [अ० मि० सं० गृद्धाका ] एक प्रकार की बड़ी प्रकार के मुद्रण के लिए होता हो । (२) सीमे के ढले हुए किशमिश या सूखा हुआ अंगूर जो रेचक होता और प्रायः अक्षर जो छापने के काम में आते है। टाइप । दवा के काम में आता है। वि० दे० "अंगृर"। मुद्रा टांग-संशा मा० । सं० ] एक प्रकार की रागिनी जिसके गाने मनगा-संक्षा पुं० [सं० मधुगूंजन वा देश० ] सहिजन । में पय कोमल स्वर लगते हैं। मनब्बतकारी-संज्ञा स्त्री० [अ० ] पत्थरों पर उभरे हुए बेल-बेटों मद्रा तस्व-संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके अनुसार किसी का काम। देश के पुराने लिकों आदि की सहायता से उस देश की ऐति- . मनमना-राशा पुं० [देश॰] मैदे का बना हुआ एक प्रकार का हासिक बातें जानी जाती है। पकवान जो रस्सी की तरह बटकर छाना जाता है। मुद्रावल-स-मा ५० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक बहुत बड़ी मनरा-संज्ञा पुं० [सं० मुद्रा ] कान में पहनने का एक प्रकार का संख्या का नाम । गहना जो कमाऊँ आदि पहाडी जिलों के निवासी पहनते मद्रामार्ग-संज्ञा पुं० [सं०] मस्तक के भीतर का वह स्थान जहाँ हैं। यह अधिकतर लोहे का ही बनता है। प्राणवायु चढ़ती है। ब्रह्मरंध्र । मनरी -संज्ञा स्त्री० दे० "मुंदरी"। मद्रायंत्र-संज्ञा पुं० [सं.] आपने या मद्रण करने का यंन्न । मनादी-संशा स्त्री० [अ० ] किसी बात की यह घोषणा जो कोई आदि की कला मनुष्य दुग्गी या ढोल आदि पीटता हुआ सारे शहर में मद्राविज्ञान-संज्ञा पुं० दे० "मुद्रातच"। करता फिरे । विढोरा । डमगी। मुद्राशास्त्र-संज्ञा पुं० दे० "मुद्रातच"। । क्रि०प्र० करना।—पिटना। फिरमा।-फेरना। होना।