पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४६८

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मीमांसा मोरफर्श सूत्रों के समझने के लिए यह जानना आवश्यक होता है कि आवश्यकता है। मीमांसकों और नैयायिकी में बढ़ा भारी कोई सूत्र इन पांचों में से किसका प्रतिपादक है। भेद यह है कि मीमापक शब्द को नित्य मानते हैं और इस शास्त्र में वाक्य, प्रकरण, प्रसंग या ग्रंथ का तात्पर्य नैयायिक अनित्य । यस्य और मीमामा दोनों अनीश्वरवादी निकालने के बहुत सूक्ष्म नियम और युक्तियाँ दी गई हैं।। हैं; पर वेद की प्रामाणिकता दोनों सानते हैं। भेद इतना सीमांसकों का यह इलोक सामान्यतः तात्पर्य निर्णय के ही है कि राज्य प्रत्येक कला में वेद का नवीन प्रकाशन लिए प्रसिद्ध है- मानता है और मीमांसक उप नित्य अर्थात् कल्पांत में भी उपक्रमोसंहारौ अभ्यासोऽपूर्वता फलम् । नष्ट न होनेवाला कहने हैं। अर्थवादोपतः च लिङ्ग-तात्पर्य-निर्णये ॥ इस शास्त्र का 'पूर्वरा ' नाम इस अभिप्राय में अर्थात् किपी ग्रंथ या प्रकरण के तात्पर्य-निर्णय के लिए नहीं रग्रा गया है कि या उत्तर सामाया। पहले यना । सात बातों पर भान देना चाहिए--उपक्रम (आरंभ),उप 'पूर्व' कहने का तात्पर्य यह है क कर्मकांड' मनुष्य का संहार (त), अभ्याप (बार बार कथन), अपूर्तता (नवीन प्रथा धर्म है; शान-कांड का अधिकार उसके उपरांत ता), फल ( ग्रंध का परिणाम या लाभ जो बताया गया आता है। हो), अर्थवाद (किसी बात को जी में जमाने के लिए दृष्टांत, मीमांमित-वि० [सं० जिएक. गगांगा का नको हो। उपमा, गुण-कथन आदि के रूप में जो कुछ कहा जाय और जो विचारपूर्वक स्थिर किया नारका हो। जो मुख्य बात के रूप में न हो) और उपपत्ति ( साधक मीमांस्य-वि० 1 सं. ] (१) जो मीमा करने के योग्य हो। प्रमाणों द्वारा सिद्धि)। मीमांसक ऐसे ही नियमों के द्वारा (२) जिसकी मीमांना करनी हो। वेद के वचनों का तात्पर्य निकालते हैं। शब्दार्थों का निर्णय मीर-संज्ञा पुं० [सं०] (१) समुद्र। (२) पर्वत का एक भाग । भी विचारपूर्वक किया गया है। जैसे, यज्ञ के लिए उहाँ (३) सीमा । हद । (४) जल । 'महन-संवत्सर" हो, वहाँ 'संवत्सर' का अर्थ दिवस लेना | संज्ञा पुं० [फा०] (1) सरदार । प्रधान । नेता । (२) चाहिए । इत्यादि। धार्मिक आचार्य। (३) सैयद जाति की उपाधि । जैसे, मीमांना शास्त्र कर्मकांड का प्रतिपादक है; अत: मीमां गीर सुलतानअली । (४) किसी बड़े सरदार या रईम का सक पौरुषेय, अपौरुषेय सभी याश्यों को कार्ग-परक मानते पुत्र । (५) ताश या गंजीफे में का सबसे बड़ा पत्ता । (६) है। वे कहते है कि प्रत्येक वाक्य किसी व्यापार या कर्म वह जो दल में औरों से पहले जीतकर या अपना दाँव का बोधक होता है, जिसका कोई फल होता है। अत: ये रखेल कर अलग हो गया हो। ( लड़के ) (७) वह जो स्थ किसी बात के संबंध में यह निर्णय करना बहुत आवश्यक से पहले कोई काम विशेषतः प्रतियोगिता का काम कर मानते हैं कि वह "विधि वाक्य' (प्रधान फर्मसूचक ) है ढाले । किमी काम में लगे हुए कई भादमियों में ये वह अथवा केवल अर्थवाद (गौण कथन, जो केवल किसी दूसरी जो सब में पहले काम कर ले। बात को जी में बैठाने, उसके प्रति उत्तेजना उत्पन्न करने : मीर अर्ज-संज्ञा पुं० [फा० मार-+अ० अर्ज ] वह कर्मचारी जो आदि के लिए हो)। जैसे,—रणक्षेत्र में जामी; वहाँ स्वर्ग बादशाहों की सेवा में लोगों के निवेदन पत्र आदि उप- रखा है।" इस वाक्य में दो खंद हैं-रणक्षेत्र में जाओ" स्थित करे। यह तो "विधि वाक्य' या मुख्य कथन है; और "वहाँ स्वर्ग मीर श्रातिश-संज्ञा पुं० [फा०] वह कर्माचारी जिम्मकी अधीनता रखा है" यह केवल 'अर्थवाद' या गौण बात है। में तोपखाना हो। मीमांसा का तस्व-सिद्धांत विलक्षण है । इसकी गणना मीरज़ा-सा पुं० [ 10 ] (1) अमीर या सरदार का लड़का । अनीश्वरवादी दर्शनी में है। आत्मा, ग्रा, जगत् आदि का अमीरजादा । (२) मुगल शाहजादों की एक उपाधि । (३) विवेचन इसमें नहीं है । यह केवल वेद या उसके शन्द की सैयद मुसलमानों का एक उपाधि । वि० दे. “मिरजा"। निस्यता का ही प्रतिपादन करता है । इसके अनुसार मंत्र ही मीरज़ाई-संज्ञा स्त्री० [फा०] (१) पीरजा होने का भाव। (२) सब कुछ हैं। वे ही देवता हैं; देवताओं की अलग कोई सत्ता मीरजा का पद या उपाधि । (३) सरदारी । अमीरी । (४) नहीं। 'भट्टदी पिका' में स्पष्ट कहा है 'शब्द मात्रं देवता'। अमीरों या शाहजादों का सा ऊँचा दिमाग होना । (५) मीरगंसकों का तर्फ यह है कि सब कर्म फल के उद्देश्य ये अभिमान । घमंड । शेखी । (६) दे. "सिरजई"। होते हैं। फल की प्राप्ति कर्म-द्वारा ही होती है । अत: वे मीरपर्श-संहा पुं० [फा०] वे गोल, ऊँचे और भारी पत्थर जो कहते हैं कि कर्म और उनके प्रतिपादक वचनों के अतिरिक्त बड़े बड़े फ़शौं या चाँदनियां आदि के कोनों पर इसलिए ऊपर से और किसी देवता या ईश्वर को मानने की क्या । रखे जाते हैं जिसमें वे हवा से उड़ न जाय ।