पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४४२

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मालकँगनी २७३३ मालकोश रसना पसारी है।-तुलसी । (ग) धाम धामनि आगिकी नाम जो हिमालय पर्वत पर झेलम नदी से आसाम तक बहु उपाल माल बिरानहीं। पवन के झकझोर ते झरी ४००० फुट की ऊँचाई तक तथा उत्तरीय भारत, बरमा और झरोखे बाजहीं ।-केशव । (घ) गीधन की माल कहुँ । लंका में पाई जाती है। इसकी पत्तियाँ गोल और कुछ अंबुक कराल कहूँ नाचत बैताल लै कपाल जाल जात से ।- कुछ नुकीली होती है। यह लता वेड़ों पर फैलती है और हनुमन्नाटक । उन्हें आच्छादित कर लेती है। चैत के महीने में हममें धौद संज्ञा पुं० [अ०] (१) संपत्ति । न । उ.--(क) भली. के धौद फूल लगते हैं और सारी लता फूलों से लदी हुई फरी उन श्याम धाए । बरज्यो नहीं कह्यो उन मेरी अति | दिखाई पड़ती है । फूलों के अद जाने पर इसमें नीले नीले आतुर उठि धाए । अल्प चोर बहु माल लुभाने संगी सबन फल लगते है जो पकने पर पीले रंग के और मदर के बराबर धराए । निदरि गए तसो फल पायो अब वे भए पराए । होते हैं, जिनके भीतर से लाल लाल दाने निकलते हैं। इन सूर । (ख) धाम औ धरा को माल बाल अबला को अरि : दानों में तेल का अंश अधिक होता है जिससे इन्हें पेरकर तजत परान राह चहत परान की।-गुमान । (ग) माखन । तेल निकाला जाता है। मदरास में उत्तरीय सरकार तथा घोरी सो अरी परकि रहेउ नंदलाल। चोरन लागै अब विजिगापट्टम, दलौरा आदि स्थानों में इसका तेल बहुत लखौ नेहिन को मन-माल ।स्य निधि । अधिक तैयार होता है। यह तेल नारंगी रंग का होता है यौ०-मालखाना । मालगाड़ी। मालगोदाम । मालज़ामिन। और औषध में काम आता है । वैद्यक के अनुसार इसका माल मनकूला। माल गैरमनकूला। मालदार आदि । स्वाद घरपरापन लिए कडुवा, इसकी प्रकृति रुक्ष और मुहा०-माल उड़ाना-(२) बहुत रुपया खर्च करना । धन का गर्म तथा इसका गुण अग्नि, मेधा स्मृतिवर्द्धक और वात, अपव्यय करना । (२) किसी की संपत्ति को हड़प लेना । दूसरे का कफ तथा दाह की नाशक बसलाई गई है। माल अनुचित रूप से ल लेना । माल काटना-किसी के धन पर्या०-महाज्योतिप्मती । तीक्ष्णा । तेजोवती । कनकप्रभा। को अनुचित रूप से अधिकार में लाना । माल उड़ाना । माल सुरलता । अग्निफला । मेधावती । पीता इत्यादि। धीरना-पराया धन हड़पना । माल उड़ाना । माल मारना। मालकगुनी-संज्ञा स्त्री० दे० "मालकँगनी"। माल मारना=अनुनित रूप से पराए धन पर अधिकार करना। मालक-संशा पुं० [सं०] (1) स्थल पम । (२) नीम । पराया धन हड़पना । दूसरे की संपत्ति दबा बैठना। सिंज्ञा पुं० दे० "मालिक"। (२) सामनी सामान । अपवाय । उ०-(क) कहो तुमहिमालकगुनी-संज्ञा स्त्री० दे. "मालफंगनी"। हम को का बुझति । लै लै नाम सुनाबहु तुम ही मो सों : मालका-संज्ञा स्त्री० [सं० ] माला । कहा अरूझति । तुम जानति मैं हूँ कछु जानत जो जो मालकुंडा-संज्ञा पुं० [हिं० माल+हिं० कुंडा ] वह कुछा जिसमें माल तुम्हारे । बारि देहु जा पर जो लागै मारग छलौ नील कदाहे में डाले जाने के पहले रखा जाता है। हमारे।-सूर । (ख) मिती ज्वार भाटा हु की शीघ्र ही मालकोश-संवा पुं० [सं०] एक राग का नाम जिस कौशिक राग निका।लोग कहत हैं भरे माल . कृति हुडारे।-श्रीधर । भी कहते हैं। हनुमत् ने इसे छः रागों के अंतर्गत माना है। मुहा०-माल काटना-चलती रेलगाड़ी में से वा मालगुदाम आदि । यह संपूर्ण जाति का राग है। इसका स्वरूप वीर रस- में स माल चुराना। भाल-टाल धन-संपति। माल-अमबाब ।। युक्त, रक्त वर्ण, वीर पुरुषों से आवेष्ठित, हाथ में रक्त वर्ण भाल-मता-माल-अमवाब । का दंश लिए और गले में मुंड माला धारण किए लिखा (३) क्रय विक्रय का पदार्थ । (१) वह धन जो कर में गया है । कोई कोई इसे नील वस्त्रधारी, श्वेत देर लिए और मिलता है। (५) फसल को उपज । (६) उत्तम और सुस्वादु गले में मोतियों की माला धारण किए हुए मानते हैं। भोजन। इसकी ऋतु शरद और काल रात का पिछला पहर है। मुहार-माल उबाना सुस्वादु और बहुमूल्य भोजन करना।। कोई कोई शिशिर और वसंत ऋतु को भी इसकी ऋतु (७) गणित में वर्ग का घात । वर्ग 1 (6) किसी वस्तु असलाते हैं। हनुमत् के मत से कौशिकी, देवगिरी, बरवारी, का सार द्रष्य । वह द्रष्य जिससे कोई चीज़ बनी हो। सोहनी और नीलांबरी ये पाँच इसकी प्रियाएँ और बागेश्वरी, जैसे,—(क) इस अंगूठी का माल अच्छा है। (ख) इस ककुमा, पयंका, शोमनी और खंभाती ये पाँच भााएँ कड़े का माल खोटा है। (ग) एक बीघे पोस्त से दो सेर तभा माधव, शोभन, सिंधु, मारू, मेवाब, कुंतल, केलिंग, अच्छा माल निकलता है। (९) सुदर स्त्री । युवती। सोम, बिहार और नीलरंग ये दस पुत्र है। परंतु अन्यत्र (बाजारू)। बागेश्वरी, बहार, शहाना, अताना, छाया और कुमारी मालकँगनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० माल ? +कैंगनी ] एक हप्ता का । नाम की इसकी रागिनियाँ, शंकरी और जयजयपती ६८४