पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३७५

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मरोड़ना बहराहकै राम्बी थसाइमरू करि में है। केशव । (स्व) | (४) पेट में ऐंठन और पीड़ा होना । पेट ऐंठना। (५) देह में नेक सम्हार रहो नहि ह्यो लांग भाजि मरू कर घमंड । गर्ष उ०-आये बाप भली कही मेटन मान मशेर । आई । मतिराम । (ग) असुआ ठहरात गरौ घहरात मरू ' दूर करो यह देखिहै छला छिगुनिया छोर । —बिहारी । करि प्राधिक बात कही।देव । (घ) चौस तो बीत्यो : (६) क्रोध । गुस्सा। मरू करिके अब आई है राति सो कैसे धौं बीतिह। मुहा०-मरोड गहना क्रोच करना । उ.--रह्यो मोह मिलना मरूक-संज्ञा पुं० [सं० ] (1) एक प्रकार का मृग । (२) मयूर । रह्यो यो कहि गहे मरोर । उन है सखिहि उराहनो इत मोर। चितई मों ओर । —बिहारी। मरुद्भवा-संशा स्त्री० [सं०] (1) जबास । (२) कपास । (३) विशेष-कविता में प्रायः "मरोड़" के स्थान में "र" ही एक प्रकार का खैर। पाया जाता है। मरूर-संज्ञा पुं० [सं०] गोरचकरा । मरोड़ना-कि० स० [हिं० माड़ना ] (१) एक ओर से घुमाकर मरूरा*-संशा धुं० [हिं० मरोड़ ऐंठन । बल । मरोड़। दूसरी ओर केरना । बल डालना । ऐठना । उ०—(क) महाo-महरा देना-बल देना । मरोड़ना । उमेठना । उ.--: बांह मरोरे जात हौ मोहि सोवत लियो जगाप। कहै कबीर मुख के पवन परस्पर सुखधत गहे पानि पिय जूरो। बूमति | पुफारि के यहि पैरे है कै जाय।--कबीर । (ख) गोद चाप जानि मन्मथ चिनगी फिरि मानो दियो मरूरो।-सूर।। से जीभ मरोरी । दधि ढरकायोभाजन फोरी।-सूर । (ग) मरूल-संज्ञा पुं० [सं० मुर्वे ] गोरचकरा । मरूर। फोपि कूदि दोउ धरेसि बहोरी । महि पटकत भज भुजा मरेठी-संशा स्त्री० [हिं० मलना+ऐठना ] वह रस्सी जिससे हंगा मरोरी ।—तुलसी । (घ) मोहि झकझोरि डारी कुच को वा स्टेला बाँधकर खेत में खींचा वा चलाया जाता है।। मरोर गरी तोरि डारी कसनि बिथोरि डा बेनी क्यों।- बरहा । बेड । गुरिया । बखर । पभाकर संज्ञा स्त्री० दे० "मुलेठी"। क्रि० प्र०-देना। डालना। पड़ना । मरोड़-संज्ञा पुं० [हिं० मरोड़ना] (१) मरोड़ने का भाव या क्रिया। मुहा०—अंग मरोड़ना अंगड़ाई लेना। उ.-सय अंग उ.-(क) मानत लाज लगाम नहि'नेकु न गहत मरोर होत मरोरि मुरो मन मैं झरि पूरि रही रस मैं न भई।- तोहि लखि बाल के हग तुरंग मुंह जोर। मतिराम । (ख) . गुमान । भौंह मरोड़ना या हग (आदि) मरोड़ना-(१) उतही ते मोरति रगन भावत अलि जिहि ओर । सीखति है। भ्रभंग करना । आँख से इशारा करन। वा कानखा मारना। मुग्धा मनों भय मिसि भृकुटि मरोर-लक्ष्मणसिंह। उ०—(क) अंतर में पति को सुरति गहि गहि गहकि मुहा०-मरोड़ खाना-चकर खाना। उ.---हाय बसन पहिरन गुनाह । हग मरोरि मुख मारि तिय छुवन देत नहिं छाँह । सगी बस न चल्यो चित्त दोर । स्वाय मरोर खड़े गियो गड़े -पद्माकर । (स्त्र) पान दियो हँसि प्यार सौ प्यारी बहू कड़े कुच कोर । -रामसहाय । मन में मरोष करना-मन में लखि त्यों हँसि भौंह मरोरी ।—देव । (२) नाक भौंह दुराव वा कपट रखना । कपट करना । 30-साधू आवत चढ़ना । भौह सिकोड़ना । उ०—(क) हौं हूँ गही पदुमा- देखि के मन में करत मरोर । सो होवेगा चूहमा बसे गाँव कर दौरि सो भौंह मरोरत सेज लौं आई । —पद्माकर । की ओर । कबीर । मरोड़ की बात-पेचदार बात । घुमाव (ख) सुनि सौतिन के गुन की चरचा द्विज जू तिय भौंह फिराव की बात । मरोरन लागी।-द्विजदेव । (२) मरोड़ने से पड़ा हुआ घुमाव । ऐंठन । बल । (३) (२) ऐठकर नष्ट करना का मार डालना । 30--(क) उद्वेग आदि के कारण उत्पन्न पीड़ा । व्यथा । क्षोभ । उ. महावीर बांकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न लंकिनी ज्यों --(क) घिरि आये चहुँ ओर धन तेहि तकि मारेस सोर । लात घात ही मरोर मारियो ।-तुलसी । (ख) माँदि मोर सोर सुनि होत रीतन में अधिक मरोर।-रामसहाय । मान्यो कलह पियोग माग्यो बोरि के मरोरि मान्यो (ख) झिलत प्रकार रहे जोखम को जोर रहै समद मशेर शोर । अभिमान भन्यो भय मान्यो है। केशव । (ग) कपि रहै तब सो।-पद्याकर । (ग) इक तो मार मरोर ते मरति ' पुनि उपवन बारिहि तोरी । पंच सेनपति सेन भरति है साँस । दूजे जास्त मास री यह सुचि लौ सुधि । मरोरी।-पक्षाकर। माँस ।-रामसहाय । क्रि० प्र०-दालना।-देना। मुहा०-मरोष खाना-उलझन में पड़ना । उ०-गुल फनि लों। (३) पीड़ा देना । दुःख देना । वेदना उत्पन्न करना । उ०- ज्यों त्यों गयो करि करि साहस जोर । फिर न फियो मुर. (क) बार बधू पिय पंथ लखि अगरानी अंग मॉरि पौदि वान चपि धित अति खात मरोर ।-रामसहाय । रही परयंक मनु बारीमदन मोरि। मतिराम। (ख) एक