पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३६०

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मनहूस मनी उ.-(क) चाहहु सुनहराम गुन गूदा । कीन्हहुँ प्रश्न मनाऊँ।-जायसी। (५) देवता आदि से किसी काम के होने मनहुँ अति मूदा। तुलसी । (ख) पंडित अति सिगरी के लिये प्रार्थना करना। उ०—(क) यह कहि कहि देवता मना- पुरी मन: गिरा गति गूढ । सिंहिनि युत जनु टिका मोहत वति । भोग समग्री धरति उठावति ।-सूर । (ख) सुकृति मूद अमूड़। केशव। सुमिरि मनाइ पितर सुर सीस ईस पद नाइ के। रघुवर कर मनहूस-वि० [अ०] (1) अशुभ। पुरा । जैसे,-उँगलियों धनुभंग चहत सब अपनो सो हित चित लाइ कै।-तुलसी। तोड़ना बहुत मनहस है। (२) अप्रिय-दर्शन । जो देखने (५) प्रार्थना करना । स्तुति करना । (क) तुम सब सिद्ध, में बेरौनक जान पड़े। जैसे,याह, क्या मनहूस सूरत मनाबहु होइ गणेश सिध लेहु । चेला को न चलावै मिल है!(३) सुस्त । आलसी निकम्मा। गुरु जेहि भेउ ।-जायसी । (ख) ताके युग पद कमल मना-वि० [अ०1 (8) जिसके संबंध में निषेध हो। निषिद्ध । मनाऊँ। जासु कृपा निरमल मति पाऊँ। -तुलसी । (ग) वर्जित । जैसे,—मनुजी के धर्मशाला में पासा खेलना करी प्रतिज्ञा कहेउ भीष्म मुख पुनि पुनि देव मनाऊँ। जो मना है। (२) जो कुछ करने से रोका गया हो। वारण तुम्हरे कर शर न गहाऊँ गंगा-सुत न कहाऊँ।-सूर। किया हुआ। मनार-संज्ञा पुं० दे. "मीनार"। विशेष-इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग केवल विधेय रूप । मनाल-संज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का चकोर जो शिमले की में होता है। जैसे,-"यह काम मना है"। यह नहीं कहते-: ओर होता है। इसके सुदर परों के लिये इसका शिकार "मना काम न करना चाहिए।" किया जाता है। (३) अनुचित । नामुनासिब । मनावना-संशा पुं० [हिं० मनाना ] (1) मनाने की क्रिया । (२) मनाई-संज्ञा स्त्री० दे० "मनाही"। रूठे हुए को प्रसन्न करने का काम । (३) मनाने का भाव । मनाक-वि० [सं०] (1) अल्प । थोड़ा। मंद। मनावी-संज्ञा स्त्री० [सं०] मनु की स्त्री का नाम । मनाक, मनाग-वि० [सं० मनाक् ] अल्प। थोड़ा। ज़रा सा मनाही-संशा स्त्री० [हिं० मना ] न करने की आशा। रोक। उ.-(क) टूटत पिनाक के मनाक वाम राम से ते नाक अवरोध । निषेध । उ०-मुकर्रर तादाद से ज़ियादा ज़मीन, बिनु भये भृगुनायक पलक में ।-तुलसी । (ख) दाहिनी गाय-बैल बकरी रखने की मनाही थी।-शिवप्रसाद । दियो पिनाकु सहमि भयो मनाकु महान्याल विकल बिलोकि मनि-संशा स्त्री० दे."मणि"। जन जरी है। मुलसी। (ग) अस्थि मात्र होइ रहे सरीरामनिका-संशा स्त्री० [सं० मणि ] माला में पिरोया हुआ दाना। तदपि मनाग मनहि नहिं पीरा ।-तुलसी। गुरिया । दाना। उ०-माला फेरत युग गया गया न मन का मनाका-संशा स्त्री० [सं०] हथिनी। फेर। कर का मनिका छोडिकै मन का मनिका फेर।-कबीर। मनादी-संशा स्त्री० दे. "मुनादी"। मनित-वि० [सं०] जात । उत्पन्न । मनाना-क्रि० स० [हिं० मानना का प्रे०] (१) दूसरे को मानने मनिधर*-संशा पुं० दे० "मणिधर"। पर उद्यत करना। यह कहलवाना कि हाँ कोई बात ऐसी मनिया-मंशा स्त्री० [सं० माणिक्य, हिं० मनिका ] (१) गुरिया। ही है। स्वीकार कराना। सकरवाना। (२) जो अप्रसन्न मनिका । दाना जोमाला में पिरोया हो। (२) कंठी। गुरिया। हो, उसे संतुष्ट या अनुकूल करना । रूटे हुए को प्रसन्न माला । उ.---हौं करि रही कट में मनियाँ निर्गन कहा करना । राज़ी करना । जैसे,—वह रूठा था; हमने सना । रसहि ते काज । सूरदास सरगुन मिलि मोहन रोम रोम सख लिया। उ०—(क) सो सुकृति सुधि मंत सुसंत सुमील। साज-सूर। सयान सिरोमनि स्वै। सुर तीरथ ताहि मनावन आवत मनियार *-वि० [हिं० मणि-आर (प्रत्य॰)] (1) देदीप्यमान। पावन होत है तात न छवै ।-तुलसी। (ख) मोहि तुम्हेन । उज्वल । चमकीला । (२) दर्शनीय । शोभायुक्त । स्वच्छ । उन्हें न इन्हें मनभावती सो न मनावन आइहै ।- रौनकदार । सुहावना । उ.-बन कुसुमित गिरगन मनि- पनाकर । (३) अप्रसन्म को प्रसन्न करने के लिये अनुनय यारा | स्रवहि सकल सरितामृत धारा।-तुलसी। विनय करना । रूठे हुए को प्रसन्न करने के लिये मीठी मीठी मनिहार-संशा पुं० [हिं० माणिकार, प्रा० मनियार] [स्त्री०मानिहारिन ] बातें करना । मनुहार करना। 30-(क) जैसे आव तैये ! धूदी बनानेवाला । धुविहारा। साधि सौंहनि मनाई लाई तुमइक मेरी बात एती विसरैयो मनी*-संज्ञा स्त्री० [हिं० मान=अभिमान ] अहंकार । 30-(क) ना।--पाकर। (ख) केतो मना पाउँ परि केसो मनावै हो ये भलो ऐसे ही अजहुँ गये राम सरन परिहरि मनी । रोह। हिंदू पूजै देवता तुरुक न काहुक होई । --कबीर । भुजा उठा साखि संकर करि कसम खाद तुलसी भनी।- (ग) लाज कियो जो पिय नहि पाऊँ। सजों लाज कर जोरि । सुलसी । (ख)मति समान जाके मनी नैकिन आवत पास।