पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३१५

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भ्रामर २६०६ मैंगनी धोग्वे में डालनेवाला । (२) संदेह उत्पन्न करनेवाला । (३) कुटिमुख-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप । घुमानेवाला । चकार दिलानेवाला । (५) धूर्त । चालबाज़ । | भू-संशा स्त्री० [सं०] आँखों के ऊपर के बाल । भौं । भौह । संज्ञा पुं० (१) गीदा। सियार । (२) चुंबक पत्थर । (३): क्रि० प्र०-चलाना ।-मटकाना ।—हिलाना। कांति लोहा। भ्रूण-संज्ञा पुं० [सं०] (1) स्त्री का गर्भ । (२) बालक की उस भ्रामर-संज्ञा पुं० [सं०] (१) भ्रमर से उत्पन्न, मधु । शहद । समय की अवस्था जब कि वह गर्भ में रहता है। बालक (२) दोहे का दूसरा भेद । इसमें २१ गुरु और ६ लघु की जन्म लेने से पहले की अवस्था। मात्राएँ होती हैं । उ०—माधो मेरे ही बसो राखो मेरी भ्रूणहत्या--संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भ गिराकर या और किसी प्रकार लाज । कामी क्रोधी लपटी जानि न छांदो काज । (३) वह गर्भ में आए हुए बालक की हत्या। गर्भ के बालक की हत्या। नृत्य जिसमें बहुत से लोग मंडल बनाकर नाचते हैं। राम ।। भ्रूणहा-संज्ञा पुं० [सं० भ्रूणहन् ] वह जिसने भ्रूण-हत्या की हो। (४) चुबक पत्थर । (५) अपस्मार रोग। भ्रप्रकाश-संशा पुं० [सं० ] एक प्रकार का काला रंग जिससे वि. भ्रमर संबंधी। भ्रमर का । श्रृंगार आदि के लिये भौहें बनाते हैं। भ्रामरी-संक्षा पुं० [सं० ग्रामरिन् ] जिसे भ्रामर या अपस्मार रोग भूभंग-संज्ञा पुं० [सं०] कोष आदि प्रकट करने के लिये भौंह हुआ हो। चढ़ाना । स्यौरी चढ़ाना । उ०--ब्रह्म रुद्र उर डरत काल संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) पार्वती । (२) पुत्रदात्री नाम के काल डरत भ्रवभंग की आँची। सूर । की लता। भ्रविक्षेप-संज्ञा पुं० [सं०] स्योरी बदलना । नाराजगी दिखाना। भ्राष्ट्र-संज्ञा पुं० [सं०] (1) आकाश । (२) वह बरतन जिसमें | भग। भभूजे अनाज रखकर भूनते हैं। श्रेष-संज्ञा पुं० [सं०] (1) नाश । (२) चलना । गमन । (३) भ्राष्ट्रकि-संज्ञा पुं० [सं० ] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि का नाम । भय । भ्रास्त्रिक-संज्ञा पु० [सं०] शरीर की एक नाली का नाम । | श्रौणहत्या-संशा स्त्री. दे. "भ्रूणहत्या"। भ्रकुंस-संशा पुं० [सं०] वह नट जो स्त्री का वेष धारण करके : भ्वहरना -कि० अ० [हिं० भय+हरना (प्रत्य॰)] भयभीत नाचता हो। होना । उरना। म्रकुटि-संज्ञा स्त्री० दे० "भृकुटी" । भ्वासर-वि० [ देश० ] बेवाफ । मूर्ख । म-हिन्दी वर्णमाला का पचीसवाँ व्यंजन और प-वर्ग का अंतिम पर मांगकर लिया जाय कि कुछ समय तक काम लेने के वर्ण | इसका उचारण स्थान होंठ और नासिका है। जिला के उपरांत फिर लौटा दिया जायगा । जैसे, मॅगनी की के अगले भाग का दोनों होंठों से स्पर्श होने पर इसका गादी, मैंगनी की किताब । (३) इस प्रकार मांगने की उचारण होता है । यह स्पर्श और अनुनासिक वर्ण है। क्रिया या भाव । इसके उच्चारण में संधार, नादघोष और अल्पप्राण प्रया क्रि० प्र०-देना।-मांगना। लेना। लगते हैं। प, फ, ब और भ इसके सवर्ण हैं। (४) विवाह के पहले की वह रस्म जिसके अनुसार वर और मंकलक-संशा पुं० [सं०] (1) एक ऋषि का नाम । (२) कन्या का संबंध निश्चित होता है। जैसे,—घट मॅगनी, महाभारत के अनुसार एक यक्ष का नाम । पट ब्याह। मंकुर-संज्ञा पुं० [सं०] दर्पण । शीशा। विशेष साधारणतः बर-पक्ष के लोग कन्या-पक्षवालों से मंखी-सहा स्त्री० [देश॰] बच्चों के कंठ में पहनाने का एक गहना।। विवाह के लिये कभ्या माँगा करते है, और जब वर तथा मंग-संज्ञा पुं० [सं०] नाव का अगला भाग। गलही। कन्या के विवाह की बातचीत पक्की होती है, तब उसे मंगता-संज्ञा पुं० [हिं०मॉगना+ता (प्रत्य॰)] भिखमंगा । भिक्षुक । मैंगनी कहते हैं। इसके कुछ दिनों के उपरांत विवाह होता मंगन-संज्ञा पुं० [हिं० मांगना ] भिखमंगा। भिक्षुक । है। मैंगनी केवल सामाजिक रीति है, कोई धार्मिक कृत्य मँगनी-संशा स्त्री० [हि माँगना+ई (प्रत्य॰)] (1) मांगने की नहीं है। अतः एक स्थान पर मंगनी हो जाने पर संबंध क्रिया या भाव । (२) वह पदार्थ जो किसी से इस शर्ड, छन सकता है और दूसरी जगह विवाह हो सकता है।