पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३११

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भोला २६०२ भौग भोला-वि० [हिं० भूलना ) (1) जिसे छल-कपट आदि न आता रस पीता है । अन्य पतंगों के समान इस जाति के अंडे से भी हो। सीधा-सादा । सरल । ढोले निकलते हैं जो कालांतर में परिवर्तित होकर पति गे हो यौ०-भोलानाथ । भोला भाला। जाते हैं। यह डालियों और ठूठी टहनियों पर अंडे देता है। (२) मूर्ख । बेवकूफ । कवि इसकी उपमा और रूपक नायक के लिये लाते हैं। भोलानाथ-संज्ञा पुं० [हिं० भोला+सं० नाथ ] महादेव । शिव । उनका यह भी कथन है कि यह सब फूलों पर बैठता है, भोलापन-शा पुं० [हिं० भोला+पन (प्रत्य॰)] (1) सिधाई। पर चंपा के फूल पर नहीं बैठता । उ०—आपुहि भौरा ___ सरलता । मादगी । (२) नादानी । मूर्खता। आपुहि फूल । आतम ज्ञान बिना जग भूल । —सूर । (२) भोला भाला-वि० [हिं० भोला-+अनु० भाला ) सीधा सादा। बड़ी मधुमक्खी। सारंग। भमर । डंगर । (३) काला वा सरल चित्त का । निश्छल । लाल भद। (४) एक खिलौना जोलटटू के आकार का होता भोसरा-वि० [देश० ] बेवक । मूर्ख । है और जिसमें कील वा छोटी सी लगी रहती है। इसी भी-संज्ञा स्त्री० [सं० 5] आँख के उपर के बालों की श्रेणी । कील में रस्सी लपेटकर लड़के इसे भूमि पर नचाते हैं। भृकुटी। भौंह। उ.-लोचन मानत नाहिन बोल । ऐसे रहत श्याम के आगे मनु दै लीन्हें मोल । इत आवत दै गत देखाई जनों भौंकना-क्रि० अ० [ भी भौ में अनु० ] (6) भौं भौं शम्भ करना। भौंरा धकडोर । उतते सूत्र न टारत कबहूँ मोयों मानत कुत्तों का बोलना । मूंकना । (२) बहुत बकवाद करना । कोर ।-सूर । (५) हिंडोले की वह लकड़ी जो मयारी में निरर्थक बोलना । बक बक करना। लगी रहती है और जिसमें डोरी वा डंटी बंधी रहती है। भौगर-संचा पुं० [देश॰ ) क्षत्रियों की एक जाति । 30-हिंगेरनामाई झलत गोपाल ।संगराधा परम सुदरि वि० मोटा ताज़ा । हृष्ट पुष्ट । धहूँघा बज-बाल । सुभग यमुना पुलिन मोहन रच्यो रुचिर भौचाला-संश पुं० दे० "भूकंप"। हिंडोर । लाल ढाँबी स्फटिक पटुली गणिन मरुवा घोर । भौंडी-संशा स्त्री० [देश॰] छोटा पहार। पहादी । टीला। भौंरा कयारिनि नील मरकत खरे पति अपार । सरल भौडा-वि० दे० "भोंडा"। कंचन खंभ सुदर रस्यो काम श्रुतिहार ।-सूर । (६) गादी भौतुवा-संशा पुं० [हिं० भ्रमना घूमना ] (1) स्वटम्ल के आकार के पहिए का वह भाग, जिपके बीच के छेद में धुरे कागज का एक प्रकार का काले रंग का कीड़ा जो प्राय: वर्षा ऋतु रहता है और जिसमें आरा लगाकर पहिए की पुट्टियाँ जदी में जलाशयों आदि में जल-तल के ऊपर चक्कर काटता हुआ जाती है। नाभि । लट्ठा।डी। (७) रहट की खड़ी घरखी चलता है। (२) एक प्रकार का रोग जिसमें बाहुदंर के जो भंवरी को फिराती है। चकरी (इंदेल.)। (८) पशुओं नीचे एक गिलटी निकल आती है। उ.-कहा भयो जो का एक रोग जिसे चेचक कहते हैं (बुंदेल.) । (९) पशुओं मन मिलि. कलि कालहि कियो भीतुवा भोर कोह।- को भिगी (बुंदेल.)। (१०) वह कुत्ता जो गड़रियों की सुलसी। (३) तेली का बैल जो सबेरे मे ही कोह में जोता भेड़ों की रखवाली करता है। (11) एक प्रकार का कीड़ा जाता है और दिन भर घूमा करता है। जो ज्वार आदि की फसल को बहुत हानि पहुँचाता है। भौर-संशा पुं० [सं० भ्रमर ] (1) भौंरा । चंचरीक । (२) तेज़ संक्षा पुं० [सं० भ्रमण ] (१) मकान के नीचे का घर । तह- बहते हुए पानी में पड़नेवाला चक्कर । आवर्त । नौद । खाना । (२) वह गढा जिसमें अन्न रखा जाता है। क्रि०प्र०—पड़ना। खात । खत्ता । भौंरकली-संशा स्त्री० दे० "भवरकली"।

  • संज्ञा पुं० दे० "भाँवर"।

भौंरा-संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर-पा. भमर, प्रा. भवर ] [स्त्री० मैंवरी] | भौंराना-क्रि० स० [सं० भ्रमण ] (1) घुमगना । परिक्रमा कराना। (१) काले रंग का उदनेवाला एक पतंगा जो गोबरैले के | (२) विवाह कराना । विवाह की भांवर दिलाना । उ०- बराबर होता है और देखने में बहुत दांग प्रतीत होता है। बर खोजाय टीका करो बहुरि देह भौंचाय।-विश्राम । इसके छ: पैर, दो पर और दो मूलें होती हैं। इसके सारे कि० अ० घूमना । चकर काटना । फेरी लगाना। शरीर पर भूरे रंग के छोटे छोटे चमकदार रोएँ होते हैं। भौरी-संशा स्त्री० [सं० भ्रमण ] (1) पशुओं आदि के शरीर में इसका रंग प्राय: नीलापन लिए चमकीला काला होता है। रोओं या बालों आदि के धुमाव से बना हुआ वह चक्र और इसकी पीठ पर दोनों परों की जड़ के पास का प्रदेश जिसके स्थान आदि के विचार से उनके गुण-दोष का निर्णय पीले रंग का होता है। स्त्री के बैंक होता है और वह डक होता है। जैसे,—स घोड़े के अगले दाहिने पैर की भौरी मारती है। यह गुंजारता हुआ उड़ा करता है और फूलों का | अच्छी पड़ी है।