पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३०३

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भृगुलता २५९४ भृगुलता-संशा स्त्री० [सं०] भृगु मुनि के चरण का चिह्न जो विष्णु | भेंटाना-कि० स० [हिं० भेंट ] (1) मुलाकात होना । मिलना। __ की छाती पर है। (२) किसी पदार्थ तक हाथ पहुँचना। हाथ से छुआ जाना। भृगुवल्ली-संशा स्त्री० [स.] तैत्तिरीय उपनिषद् की तीसरी वल्ली । भंड-संशा पी० दे० "भै"। जिसका अध्ययन भृगु मुनि ने किया था। भेवना-क्रि० स० [हिं० भिगोना ] भिगोना । तर करना । उ.--- भृगुसुत-संशा पु०सं०] (1) शुक्राचार्य । (२) शुक्र ग्रह । (क) भेवल धरल बा दृध में खाजा तोरे यथे। तेग अली । भृत-संशा पं0 (मं. ] [स्त्री भृता] (1) भृष्य । दाम । मेवक । (ब) लुचई पोर पोइ घी भें। पाछे चहनि खाँद सो जेई। (२) मिताक्षरा के अनुसार वह दास जो बोझ ढोता हो। -जायसी। ऐसा दास अधम कहा गया है। भेउ*-संज्ञा पुं० [सं० भेद ) भेद । मर्म । रहस्य । वि० [सं०] (1) भरा हुआ। पूरित । उ०-छाए आप ! भेक-संज्ञा पुं० दे० "मैदक"। पास दीसैं भौंर भृत भनकार ।-भुवनेश । (२) पाला भेकराज-संज्ञा पुं० [सं०] भृगराज । भैंगरैया। हुआ। पोषण किया हुआ। भेख-संज्ञा पु० दे. "वष"। भृतक-संशा पुं० [सं०] वह जो वेतन लेकर काम करता हो। भेखज*-संज्ञा पुं० दे० "भेषज"। भेज-संज्ञा स्त्री० [हिं० भेजना ] (1) वह जो कुछ भेजा जाय । भृति-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) नौकरी। (२) मजदूरी । (३): (२) लगान। (३) विविध प्रकार के कर जो भूमि पर वेतन । तनखाह (४) मूल्य । दाम । (५) भरने की क्रिया। लगाए जाते हैं। (६) पालन करना । उ०—त्रै पथ निकल चकित अति । भेजना-क्रि० स० [सं० बजन् ] किमी वस्तु या व्यक्ति को एक आतुर भर्मत हेतु दियो । भृति विलंयि पृष्टि दै श्यामा स्थान से तूमर स्थान के लिये रवाना करना । किमी वस्तु श्याम श्याम बियो।-सुर । या पदार्थ के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने का आयो- भृत्य-संशा पं० स०] [ मी० भृत्या सेवक । नौकर। जन करना। मृत्यता-मंदा ना० [सं०] भृत्य का धर्म, भाव या पद। संयो० कि०---देना । भृत्या-मशः सी [H01 (1) दापी । (२) चंतन । तनखाह । भेजवाना-क्रि० स० [हिं० भेजना का प्रेर०] भेजने के लिये प्रेरणा भूमि-मका पुं० [सं०] (१) घूमनेवाली वायु । बवंडर । (२) करना । दूसरे को भेजने में प्रवृत्त करना । भेजने का काम पानी में का भंवर या चक्कर । (३) वैदिक काल की एक दूसरे से कराना। प्रकार की वीणा। संयोकि०-देना। वि० घूमनेवाला । चक्कर काटनेवाला। भेजा-संगा पुं० [ ? ] खोपड़ी के भीतर का गूदा । सिर के अंदर भृम्यश्व-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम । का मजा भश-क्रि० वि० [सं०] अत्यधिक । बहुत अधिक । उ०--तेहि . महा०-भेजा खाना-बक बककर मिर खाना । बहुत बक बककर के आगे मिलत है जोजन महस अठार । तपत भानु भृश तंग करना । शीश पर तहँ अति तुदन अपार ।-विश्वास । संज्ञा पुं० [हिं० भेजना ] चंदा । बेहरी । भृशपत्रिका-सशा स्त्री० [सं० महानीली । भेजाबरार-संज्ञा पुं० [हिं० भेजा चंदा+फा बरार ] एक प्रया भृष्ट-वि० [सं०] भूना हुआ। जिसके अनुसार देहातों में किसी दरिद्र या दिवालिए का भृष्टकार-संज्ञा पुं० [सं०] भह जा। देन चुकाने के लिये आस पास के लोगों से चंदा लिया भेउती - म० दे."भौती"। जाता है। भेंट-संक्षा स्त्री० [हिं० भेटना ] (1) मिलना । मुलाकात । जैसे, . भट-संज्ञा स्त्री० दे० "भेंट"। -यदि समय मिले तो उनसे भी भेंट कर लीजिएगा। भेटना-क्रि० स० दे. "भेंटना"। (२) उपहार । नजराना । उपायन । जैसे,—ये ५१ संज्ञा पुं॰ [देश॰] कपास के पौधे का फल । कपास का डोंडा। आपका भेंट हैं। भेड-संशा स्रा० [सं० मेप] [ पुं० भेडा (१) बकरी की जाति का क्रि०प्र०-चढ़ना।---चढ़ाना।-देना।—पाना ।—मिलना। पर आकार में उससे कुछ छोटा एक प्रसिद्ध चौपाया जो -लेना। बहुत ही सीधा होता है और किसी को किसी प्रकार का भेंटना* -कि० म० [सं० भिद्-आमने सामने से आकर भिड़ना ] कष्ट नहीं पहुँचाता । गाउर । (1) मुलाकात करना। मिलना । (२) गले लगाना । छाती विशेष-भेद प्रायः सारे संसार में पाई जाती है और इसकी से लगाना। आलिंगन करना। अनेक जातियाँ होती हैं। यह ध, ऊन और मांस के लिये