पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२५४

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भरी भर्मन भरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० भर ] एक तौल जो दश माशे या एक (२) जो आश्रय में रहता हो। आश्रित । (३) जिसका रुपए के बराबर होती है। भरोसा किया जाय । विश्वास करने योग्य । विश्वसनीय। भरु*-संज्ञा पुं० [सं० भार ] (१) योझ । बज़न । बोझा । उ०- भरोट-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की जंगली घास जो राज- (क) विविध सिंगार किये आर्गे ठाढ़ी ठादी प्रिये सखी भयो पूताने में अधिकता ये होती है और जो पशुओं के खाने के भरु आनि रतिपति दल दलकै ।-हरिदास । (ख) काम में आता है। इसमें छोटे छोटे डाने या फल भी लगने भावक उभरौहाँ भयो कश पो भरु आय । सीपहरा के हैं जिनके चारों ओर काटे होते हैं। मुरत । मिस हियो निति दिन हेरत जाय।-बिहारी । भरौती-संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना+ओती (प्रत्य॰)] वह रसीद संज्ञा पुं० [सं०] (१) विगु । (२) समुद्र । (३) स्वामी । जिसमें भरपाई की गई हो। भरपाई का कागज़ । मालिक । (४) सोना । स्वर्ण । (५) शंकर । । भरौना --वि० [हिं० भार+औना (प्रत्य॰)] बोझल । वज़नी। भरत्रा-संज्ञा पुं० [ देश. ] टसर । भारी। संज्ञा पुं० दे० "भडुआ"। उ०-चोर चतुर बटपार नद भर्ग-संज्ञा पुं० [सं० ] (1) शिव । महादेव । शंकर । उ०-अमेय प्रभु प्रिय भरुआ भंड । सब भच्छक परमारथी कलि कुपंथ तेज भर्ग भक्त सर्गवंश देखिये ।-केशव । (२) कीतिहोत्र पार्षद।-तुलसी। _के पुत्र का नाम । (३) सूर्य का तेज ! (४) एक प्राचीन भरका संज्ञा पुं० [हिं० भरना ] पुरवे के आकार का मिट्टी का । देश का नाम । घना हुभा कोई छोटा पात्र । मटकना । चक्कर। समा पुं० [सं० भर्गस् ] ज्योति । दीप्ति । चमक। भरुहाना-कि० अ० [हिं० भार या भारी+आना या हाना (प्रत्य॰)] भर्गाजन-संज्ञा पुं० [सं० ] एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि का नाम । घमंड करना । अभिमान करना । उ०—(क) अब वे भरु- | भर्जन-संज्ञा पुं० [सं०] भाव में भूना हुआ अन्न । हाने फिरें कहुँ डरत न माई । सूरज प्रभु मुँह पाह के भाए | भर्ता-संज्ञा पुं० [सं० भर्तृ ] (१) अधिपति । स्वामी । मालिक । पीठ बजाई।—सूर । (ख) नीच पाहि बीच पति पाइ (२) खाविंद । (३) विष्णु । भरुहाइगो बिहाइ प्रभु भजन बच्चन मन कायको।-तुलसी। संज्ञा पुं० दे० "भरता"। क्रि० स० [हिं० भ्रम ] (1) बहकाना । धोखा देना । भ्रम | भतर-संज्ञा पुं० [सं० भर्नु ] स्त्री का पति । स्वामी। मालिक । में डालना । उ॰—तुमको नंदमहर भरुहाए। माता गर्भ खाविंद । उ.-काम अति तन दहत दीजै सूरश्याम नहीं तुम उपजे तो कही कहाँ ते आए । —सूर । (२) उत्ते भार ।--सूर । जित करना । बढ़ावा देना। उ.-भरुहाए नट भाट भर्ती-संज्ञा स्त्री० दे. "भरनी"। के चपरि चदै संग्राम । कै वे भाजे आइहै कै बाँधे भर्तहरि-संशा पुं० [सं०] (9) प्रसिद्ध वैयाकरण और कवि परिनाम । जो उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के छोटे भाई और गंधर्व- भरुही-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] मलम बनाने की एक प्रकार की : सन के दासी-पुत्र थे। कहते हैं कि ये अपनी बी के साथ कच्ची किलक । बहुत अनुराग रखते थे, पर पीछे से उसकी दुश्चरित्रता के संज्ञा स्त्री० दे. “भरत" (पक्षी)। कारण संसार से विरक्त हो गए थे। यह भी कहा जाता है भरेंड-संशा पुं० दे. " "। कि काशी में आकर योगी होने के उपरांत इन्होंने कई ग्रंथों भरेठा-संज्ञा पुं० [हिं० भार+काट ] दरवाजे के उपर लगी हुई की रचना की थी। कुछ लोगों का यह भी विश्वास है कि वह लकड़ी जिसके ऊपर दीवार उठाई जाती है। इसे 'पटाव' ये अपने भाई विक्रमादित्य केही हाथ से मारे गए थे। भी कहते हैं। आजकल कुछ योगी या साधु हाथ में सारंगी लेकर इनके भरैया-वि० [सं० भरण+ऐया (प्रत्य॰)] पालन करनेवाला । संबंध के गं.त गाते और भख मांगते हैं। ये लोग अपने पोषक । पालक । रक्षक । आपको इन्हीं के संप्रदाय का पतलाते हैं । (२) एक संकर वि० [हिं० भरना+ऐया (प्रत्य०)] भरनेवाला । जो भरता हो। राग जो ललित और पुरज के मेल से बनता है। इसमें सा भरोसा-संज्ञा पुं० [सं० वर+आशा ] (1) आश्रय । आसरा । (२) वादी और म संवादी होता है। सहारा । अवलय । (३) आशा । उम्मेद। (8) विश्वास । | भर्सन-संशा स्त्री० [सं० (१) निंदा। शिकायत । (२) डाँट- यकीन। क्रि० प्र०—करना ।-रखना । भर्मा-संज्ञा पुं० दे० "भ्रम"। भरोसी -वि० [हिं० भरोसा+ई (प्रत्य॰)] (1) भरोसा या| संशा पुं० सं०] (1) सोना । स्वर्ण । (२) नाभि । आसा रखनेवाला । जो किसी बात की आशा रखता हो। भर्मन*-संशा पुं० दे. "भ्रमण"। Post Graduate Library