पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२३५

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भंगान भंडताल भंगान-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली । प्रण को वह पीड़ा जो वायु के कारण होती है। भँगार-संशा पुं० [सं० भंग ] (1) ज़मीन में का वह गढ्ढा जो वि० भजक । तोदनेवाला । जैसे, भवभंजन, दु:ख-भजन । बरसात के दिनों में आप मे आप हो जाता है और जिम्में भंजनक-संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें मुँह टेढ़ा हो जाता वर्षा का पानी पमाता है। (२) वह गडदा जी कूआँ बनाते है। लकवा । भंग। समय पहले खोदा जाता है। भंजना-क्रि०अ० [सं० भजन ] (1) किसी पदार्थ के संयोजक संज्ञा पुं० [हिं० भाग ] घास फूप। कूड़ा करकट । उ०- अंगों का अलग अलग होना। विभक्त होना । टुकड़े टुकड़े (क) माला फेरे कुछ नहीं डारि मुआ गल भार । ऊपर देला होना । टूटना । (२) किसी बड़े सिक्के का छोटे छोटे सिंकों ही गला भीतर भरा भंगार ।—कबीर । (ख) वैष्णव भया से बदला जाना । भुनना । जैसे, रुपया भैजना । तो क्या भया माला पहिरी चार । ऊपर कली लपेट के भीतर क्रि० अ० [हिं० भाँजना ] (1) बटा जाना । जैसे, रस्सी भरा मैंगार ।-कबीर । वा तागे का भंजना । (२) काग़ज़ के तस्तों का कई परतों भंगारी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] मच्छड़। में मोड़ा जाना । भौजा जाना। भँगास्यन-संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक राजा भंजना*-क्रि० स० [सं० भंजन ] तोड़ना । टुकड़े करना । जिसने पुत्र की कामना से अग्निष्टुत् यज्ञ किया था और उ०-उठहु राम भंगहु भवचमा । मेटहु तात जनक जिसे सौ पुत्र हुए थे। संतापा।-तुलसी। भंगि-संज्ञा स्त्री० [सं० ] (१) विच्छेद । (२) कुटिलता । टेदाई। भंजनागिरि-संज्ञा पुं० [सं० ] एक पर्वत का नाम । (३) विन्यास । अंगनिवेश । अंदाज़ । (४) कलोल । लहर। भैंजनी -संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँजना ] करघे का एक अंग जो ताने (५) भंग । (६) ध्याज । (७) प्रतिकृति । को विस्तृत रखने के लिये उसके किनारे पर लगाया जाता

  1. गिरा-संज्ञा पुं० दे० "मैंगर"।

है। यह बाँस की तीन चिकनी, सीधी और दलकारियों भंगी-संज्ञा पुं० [म. भगिन् । [स्त्री० भंगिनी ) (१) भंगशील । मे बनता है जो पास पास समानांतर पर रहती हैं। इहीं नष्ट होनेवाला । (२) भंग करनेवाला । मंगकारी । उ० तीनी लकषियों के बीच की संधियों में से ऊपर नीचे होकर रसना रसालिका रसति हंस मालिका रतन ज्योति जालिका . ताना लगाया जाता है । यह बुननेवाले के सामने किनारे पर यो देव दुःख भंगिनी ।-देव । (३) रेखाओं के झुकाव से रहता है। भैंसरा। स्वींचा हुआ चित्र वा बेलबूटा आदि । . भंजा-संश स्त्री० [सं०] अनपूर्णा का एक नाम । संज्ञा पुं० [सं० भक्ति ] [ श्री. भंगिन् ] एक अस्पृश्य जाति : भैजाना-कि०स० [हिं० मैं जना ] (1) ऑउने का सकर्मक रूप । जिसका काम मल मूत्र आदि उठाना है। भागों वा अंशों में परिणत कराना । तुड़वाना । (२) यदा वि० [हिं० भांग ) भांग पीनेवाला । भैगेड़ी। सिका आदि देकर उतने ही मूल्य के छोटे सिक्के लेना। भंगील-संज्ञा पुं० [सं०] ज्ञानेंद्रिय की विकलता। भुनाना । जैसे,—-रुपया भैजाना। भंगुर-वि० [सं०] (1) भंग होनेवाला । नाशवान् । जैसे, कि० स० [हिं० भाँजना ] भौजने का प्रेरणार्थक रूप । दूत्वरे क्षणभंगुर । (२) कुटिल । टेदा । को भोजने के लिये प्रेरणा करना वा नियुक करना । जैसे, संशा पुं० नदी का मोद या घुमाव । रस्पी माना । कागज़ #जाना । भंगुरा-संशा मी० [सं०] (1) अतिविषा । अनीस । (२) ' भंझा-संदा पुं० [देश॰] वह लकड़ी जो कुएँ के किनारे के खंभे प्रियंगु । वा ओटे के ऊपर आदी रग्बी जाती है और जिस पर गदारी भँगेड़ी-वि० [ir. भाग-न-पड़ी (प्रत्य॰)] जिम्मे भांग पीने की लत लगाकर धुरे टिकाए जाते हैं। हो। बहुन अधिक भाँग पीनेवाला । भंगड़। भंटक-संज्ञा पुं० [सं० मरसा नामक पाग। भँगेरा-संशा पुं० [हिं० भांग+परा ( प्रत्य०)] भांग का छाल का भंटकटैया-संा स्त्री० दे० "भटकटैया"। बना हुआ कया । मैंगरा । भँगेला । 'भंटा-संज्ञा पुं० [सं० वृताक ] बैगन । संशा पुं० [सं० गरात्र भैगरा भैंगरया। भंट्रक-संशा पुं० [सं० ] श्योनाक । भँगेला-संशा पुं० [हिं० भॉग ] भाँग की छाल का बना हुआ भंड--संज्ञा पुं० [सं०] भाँद । वि० दे० "भार"। कपड़ा । भँगेरा । भैंगरा। वि० [सं०] (१) अश्लील या गदी बाते बकनेवाला । (२) भंजक-वि० [सं०] [स्त्री. भंजिका ] भंगकारी । तोरनेवाला। धर्स । पाखंडी। . भजन-संज्ञा पुं० [सं०] (1) तोपना । भंग करना । (२) भंग । भैंडताला-संज्ञा पुं० [हिं० भाँ+ताल ] एक प्रकार का गाना और अस । (३) नाश । (४) मंदार आक। (५) माँग। (६) नाच जिसमें गानेवाला गाता है और शेष समासी उसके पीछे