पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२३०

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ब्रह्मरात्रि ब्रह्मशासन ब्रह्मरात्रि-संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की एक रात जो एक कल्प ब्रह्मविद्या-संज्ञा स्त्री० [सं०](1) वह विधा जिसके द्वारा की होती है। कोई व्यक्ति ब्रह्म को जान सके । उपनिषद विद्या । ब्रह्मराशि-संज्ञा पुं० [सं०] (1) परशुराम का एक नाम । (२): (२) दुर्गा । बृहस्पति से आक्रांत श्रवण नक्षत्र । ब्रह्मवृक्ष-संशा पुं० [सं०] (1) पलाशवृक्ष । (२) गूलर का पेड़। ब्रहरीति-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पीतल । ब्राह्मवेत्ता-संज्ञा पुं० [ मे० } बह्म को समझनेवाला । महाज्ञानी। ब्रह्मरूपक-संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में गुरु तत्वज्ञ । लघु गुरु लघु के क्रम मे १६ अक्षर होते है। इसे चला' ! ब्रह्मवैवर्त-संज्ञा पुं० [सं०] (१) यह प्रतीति मात्र जो ब्रह्म के और चित्र' भी कहते हैं। उ०—अन्न देइ सीख देइ राखि कारण हो; जैसे,--जगत् की । (२) ग्रह का विवर्त जगत् । लेह प्राण जात । राज बाप मोल ले कर जु दीह पाषि ब्रह्म के कारण प्रतीत होनेवाला गत् । (३) श्रीकृष्ण । गात । दास होय पुत्र होय शिष्य होय कोइमाइ । शासना (५) दारह पुराणों में से एक पुराण में कृष्ण-भक्ति- नमानई तो कोटि ज म नर्क जाह।-केशव । संबंधी है। ब्रह्मरूपिणो-संज्ञा स्त्री० [सं० ) बंदा। बाँदा । विशेष-त्स्यपुराण में इस पुराण का जो परिचय दिया हुआ ब्रह्मरेख, ब्रह्मलेख-संज्ञा स्त्री० [सं०] भाग्य बा अभाग्य का है, उसमें लिखा है कि इसमें सावर्णि ने नारद से 'रमंतर' लेख जिसके विषय में कहा जाता है कि ब्रह्मा किसी जीव ।। कल्प के श्रीकृष्ण का माहात्म्य और अझवाराह की गाथा के गर्भ में आते ही उम्मके मस्तक पर लिख देते हैं। कही है । पर इस नाम का जो पुराण आजकल मिलता है, ब्रह्मर्षि-संश। पु. { सं०] बाक्षण ऋषि । उसमें न तो मावर्णि वक्ता है और न ब्रह्मवाराह की गाथा ब्रह्मर्षिदेश-संज्ञा पुं० [सं०] वह भूभाग जिसके अंतर्गत कुरुक्षेत्र, . है। प्रचलित पुराण में नारायण ऋषि नारदजी से और मत्स्य, पांचाल और शूरसेनक देश थे। (मनु.) नारदजी व्यासजी मे कहते हैं। इसके 'ब्रह्म', 'प्रकृति', ब्रह्मलोक-संज्ञा पुं० [सं०] (१) बह लोक जहाँ ब्रमा रहते हैं। 'गणेश' और 'कृष्ण-जन्म' नामक चार बंद हैं। ब्रह्मवर (२) मोक्ष का एक भेद। में परब्रह्मनिरूपण, सृष्टि, ब्रह्मांड की उत्पति, कृष्ण रूप में विशेष—कहते हैं कि जो लोग देवयान पथ से ब्रह्मलोक को नारायण का आविर्भाव, महाविराट-जन्म, रासमंडल, राधा प्राप्त होते हैं, उन्हें फिर इस लोक में जन्म नहीं ग्रहण ' की उत्पत्ति, गोपों और गौओं की उम्पत्ति, वेद शास्त्र की करना पड़ता। उत्पत्ति, पृथ्वी के गर्भ से मंगल की उत्पति इत्यादि विषय ब्रह्मवध-संज्ञा पुं० [सं० ] अमहत्या। है । प्रकृति बंड में शक्ति शब्द की निरुक्ति, प्रांड की ब्रह्मवध्या-संज्ञा स्त्री० [सं० ] ब्रह्महत्या । ब्राक्षणयध । उत्पत्ति, देवताओं का आविर्भात्र, सरस्वती, लक्ष्मी और ब्रह्मवर्चस्-संशा पुं० [सं० ] वह शक्ति जो ब्राह्मण तप और । गंगा का परस्पर विवाद और शाप के कारण नदी रूप में स्वाध्याय द्वारा प्राप्त करे । ब्रह्मतेज । हो जाना, भूमिदान आदि का पुण्य, भगीरथ का गंगा ब्रह्मवर्चस्वी-वि० [सं० ब्रह्मवर्चस्विन् ] ब्रह्म तेजवाला। लाना, गोलोक में क्रोध करके राधा का गंगा को पान करने ब्रह्मवर्द्धन-संज्ञा पुं० [सं०] तांश। दौड़ना, गंगा का श्रीकृष्ण के चरण में शरण लेना, फिर ब्राह्मवाणी-संशा स्त्री० [सं०] वेद । झा आदि की प्रार्थना पर कृष्ण का गंगा को पैर से निकाल ब्रह्मवाद-संज्ञा पुं० [सं०] (1) वेद का पढ़ना पदाना । वेदपाठ । कर देना, तुलसी की कथा इत्यादि है। गणेशखंड में शिव (२) वह सिद्धांत जिसमें शुद्ध चैतन्य मात्र की सत्ता . का पार्वती को गंगातट पर हरिमंत्र देना, पार्वती का कृष्ण स्वीकार की जाय, अनात्म की सत्ता न मानी जाय । से वर प्राप्त करना, गणेशजाम, गणेश के शिरच्छेद और अद्वैतवाद । गजाननन्द का कारण है। श्रीकृष्ण-जन्म खंड में श्रीकृष्ण ब्रह्मवादिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] गायत्री। की अनेक कथाओं और बिहार आदि का वर्णन है। ब्रह्मवादी-वि० [सं० ब्रह्मवादिन् ] [स्त्री० ब्रहावादिनी ] ब्रह्म जैसा ऊपर कहा जा रुका है, इस पुराण के असल होने में अर्थात् शुद्ध चैतन्य मात्र की सत्ता का स्वीकार करनेवाला। बहुत संदेह है। नारद और शिवपुराण में दिए हुए लक्षण वेदांती । अतिवादी। भी इस पर नहीं घटते । बैष्णव पुराण तो यह है ही, पर प्रायपिंदु-संज्ञा पुं० [सं०] वेदपाठ करने में मुंह से निकला हुआ विष्णु के कृष्ण रूप को सबसे अधिक महत्व प्रदान करना थूफ का छींटा। ही इसका मुख्य उद्देश्य जान पड़ता है। ब्रह्मविद्-वि० [सं०] (1) बक्ष को जानने वा ममझनेवाला । ब्रह्मशल्य-संज्ञा पुं० [सं०] बबूल का पैक। (२) वेदार्थशाता। ब्रह्मशासन-संज्ञा पुं० [सं० 1 (8) वेद या स्मृत्ति की आज्ञा ।