पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२२६

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ज्योतना ब्राह्म मुहा०--ज्योत खाना-ठीक इंतजाम वैठना । व्यवस्था अनुकूल ! यौ०-व्योरेवार । पड़ना । उसोत फैलना= दे० "योत ग्वाना'। (३) वृत्त । वृत्तांत । हाल । समाचार । उ०-उसने वहाँ (७) प्राप्त सामग्री से कार्य के साधन की व्यवस्था । काम का सब व्योरा कह सुनाया ।-सस्टू० । पूरा उतारने का हिसाब किताब । जैसे,—करना तो कम , व्योसाय-संज्ञा पुं० दे. "व्यवसाय" । है, पूरे कुरते की म्योंत कैसे करें? योहर-संज्ञा पुं० [हिं० व्यवहार ] लेन देन का ध्याार । रुपया महा--म्यांत खाना-पूरा हिसाब किताब बैठना । व्योत ऋण देना। उ.-अण में निपुण म्याज लेने में निपुण फैलना दे. व्यात खाना।" भये, भ्योहर निपुण स्वर्ग कोदी की कमाई है। रघुराज । (4) साधन या सामग्री आदि की सीमा । समाई । जैसे,--- मुहा०-म्यांहर चलाना-सूद पर रुपया देना। महाजनी करना । जहाँ तक ठयोंत होगा, वहीं तक न खर्च करेंगे। (९) पह- | ज्योहा-संज्ञा पुं० [हिं० व्योहार ] सूद पर रुपया देनेवाला। नावा बनाने के लिये कपड़े की काट छाँट । तराश । किता। हुटी चलानेवाला। यौ कतरब्योंत । ब्योहरिया-संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार ] सूद पर पए के लेन देन ज्योतना-क्रि० स० [हिं० व्योत ] (1) कोई पहनाना बनाने के का म्यापार करनेवाला । महाजनी करनेवाला । उ०-(क) लिये कपड़े को नारकर काटना छाँटना। नाप से कतरना। अब आनिय म्यौहरिया बोली । सुरत देउँ मैं थैली खोली। उ.-(क)....."मोटो एक थान आयो राख्यो है बिछाइ –तुलम्पी। (ख) जेहि ब्यौहरिया कर व्योहारू । का क्षेत्र के । लावो बेगि याही क्षण मन की प्रवीन जानि, लायो दुख देव जो छेकहि बारू।-जायसी। आनि ज्योत लई है मिमाइ के।-प्रिया । (ख) जीस्यो व्योहार-संज्ञा पुं० दे. "व्यवहार"। जरासंधि बंदि छोरी । युगल कपाट बिदारिबाट करिलतनि न्यौहर-संज्ञा पुं० दे० "योहर"। जुही संधियोरी....। कयो न कार को कर बहुरि बहरि ब्यौहरिया-संज्ञा पुं०० "योहरिया"। अरै एक ही पाइदै इक पग पकरि पछान्यो। सूर स्वामी न्यौहार-संज्ञा पुं० दे० "व्योहार"। अति रिसि भीम की भुजा के मिस ब्योंसत धमन ज्यों सुत नज-संज्ञा पुं० दे. "ज"। तन फान्यो।-सूर। (ग) दरजी किते तिते धन गरजी । | ब्रजना*-कि० अ० [सं० प्रजन] जाना । चलना। गमन करना। योतहि पटु पट जिमि नृप मरजी।--गोपाल। (२) मारना। उ.-(क) प्रजति अजेस के निवेम्प 'भुवनेस' बेप, घशुकृत काटना । मार डालना । (बाज़ारी) चकृत विवकृत भृकुटि बंक ।-भुवनेश । (ख) अब न म्योताना-क्रि० स० [हिं० व्योतना का प्रेरणा दरजी से नाप के बजाज में बज प्यारे। हमरे भाग्य विवरस पगु धारे। अनुसार कपड़ा कदाना । -रखुराज। (ग) षोडल कला कृष्ण सम्बसारा । द्वादश ब्योपार-संज्ञा पुं० दे. "व्यापार"। का राम अवतारा । पोइग्य तजि द्वादश कस भजह । ज्योपारी-संज्ञा पुं० दे. "व्यापारी"। समाधान करु नहि घरग्रजहू।-रघुराज । ब्योरना-क्रि० स० [सं० विवरण ] (1) गुथे वा उलझे हुए बालों व्रजवादनी-संशा स्त्री० [सं० ब्रज+बादनी ? एक प्रकार का आम को अलग अलग करना । उ.-बेई कर ध्योरनि बहै योरो जिसका गलता के रूप का होता है। इपे सजवल्ली भी करम विचार। जिनही उरझो मोहियो तिनही सुरमे वार ।- बिहारी । (२) सूत या तागे के रूप की उलझी हुई वस्तुओं | ब्रन-संज्ञा पुं० [सं०] (1) सूर्य । (२) वृक्षमूल । (३) अर्क। के तार तार अलग करना । आक का पौधा । (५) शिव । (५) दिन । (६) घोड़ा । ब्योरा-संज्ञा पुं० [हिं० भ्योरना ] (1) किसी घटना के अंतर्गत (७) चौदहवें मनु भौरप के पुत्र का नाम । ( मार्क० पु.) एक एक बात का उल्लेख या कथन । विवरण । तफसील। (4) एक रोग। उ.-एक लड़के ने पेड़ गिरने का व्योरा ज्यों स्यों कहा।-ब्रह्म-संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मन् ] (1) एक मात्र नित्य चेतन सत्ता जो जगत का कारण है। मत्, चित् आनंद-स्वरूप तत्र यौ०-न्योरेवार- एक एक बात के उल्लेख के साथ । सविस्तर । जिसके अतिरिक्त और जो कुछ प्रतीत होता है, सम असत् विस्तार के साथ। या मिथ्या है। (२) किसी विषय का अंग प्रत्यंग। किसी एक विषय के विशेष-ब्रह्म जगत् का कारण है, यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण भीतर की सारी बास । किसी बात को पूरा करनेवाला है। ब्रह्म सच्चिदानंद, अखंड, नित्य, निर्गुण, अद्वितीय एक एक खंड। जैसे,—सब १०० पर्च हुआ, जिसका इत्यादि है, यह उसका स्वरूप लक्षण है। जगत् का कारण ज्योरा नीचे लिखा है। होने पर भी जैसी कि सांस्य की प्रकृति या वैशेषिक का