पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१९६

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२४८९ वृहदारण्यक पुं० [सं० ठहराय राख्यो सबहू । बृदि यूनिवेदन सों एक ते सरस : जो पौधों, उनके तनों, फूलों और पत्तों आदि पर उत्पन्न हो एक हारें नाहि उपचार करत है अबहू ।-नाय । जाती है और जिसके कारण वे पदार्थ सबने या नष्ट होने संयो) क्रि०-जाना। लगते हैं। अंगूर के लिये यह विशेष प्रकार से घातक होती बूदा-संज्ञा पुं० [हिं० डूबना ] वर्षा आदि के कारण होनेवाली है। इसकी गणना वृक्षों आदि के रोगों में होती है। जल की बाद। बूला-संज्ञा पुं० [देश॰ ] पयाल का बना हुआ जता । लतड़ी। क्रि० प्र०-आना। बृच्छ*-संज्ञा पुं० दे. "वृक्ष"। बूढ़ा-वि० दे० "बुढा"। | बृटिश-वि० दे० "ब्रिटिश"। संज्ञा पुं० [१] (1) लाल रंग। (२) बीर बहूटी । उ०- वृष-संशा पुं० [सं० वृष ] (1) साँद । बैल । (२) मोरपंख । (३) रस कैसे रुख ससिमुखी हैसि हँसि बोलति बैन । गृह मान ! इंद्र । उ०—हमरे आवत रिस करत अस तुम गए मुटाइ । मन क्यों रहै भये बूद रंग नैन ।-बिहारी। पडपत्रिका बान कर लखि वृप रहे चुपाइ ।-विश्राम । बूढ़ा-संज्ञा पुं० दे. "घुडा"। (४) बारह राशियों में से दूसरी राशि । दे. "वृष"। सिंहा स्त्री० [हिं० बुड्ढा बुढी खी। बृहती-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) कटाई । बरहटा। बनभंटा। (२) बूत-संज्ञा पुं० दे० "बृता"। विश्वावसु गंधर्व को वीणा का नाम । (३) उत्तरीय वन । बृता-संज्ञा पुं० [हिं० वित्त ] बल । पराक्रम । शक्ति । उ०-(क) ! उपरना। (४) कंटकारी। भटकट या। (५) सुश्रुत के देव कृपा कजरा हग की पलकें न उठे जिहि सों निज ! अनुसार एक मर्मस्थान जो रीढ़ के दोनों ओर पीठ के बीच बुते ।-सेवक । (ख) कहिन बड़े दोउ राजा होही। ऐसे में है । यदि इस मर्मस्थान में चोट लगे तो बहुत अधिक बृत दसे सब तोहीं। जायसी। रक्त जाता है और अंत में मृत्यु हो जाती है । (६) एक बूथड़ी-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] आकृति । चेहरा । सूरत । शकल। वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नी अक्षर होते है। (७) (दलाल) वाक्य। खुना-संज्ञा पुं॰ [देश] घनार नाम का वृक्ष । दे० "चनार"|| बहतीकल्प-संशा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का कायाकल्प। बम-संशा पुं० [अ०] (१) वह लट्ठा जो जहाजों के पाल के | ब्रहतीपति-संज्ञा पुं० [सं० ] बृहस्पति । नीचे के भाग में, उसको फैलाए रखने के लिये लगाया . बहत-वि० [सं०] (१) बहुत बड़ा विशाल। बहुत भारी। (२) जाता है । (२) बहुत से लट्ठों आदि को बाँध कर तैयार । बलिष्ठ । (३) पर्याप्त। () उच्च । ऊँचा । (स्वर भादि)। की हुई वह रोक जो नदी में लकड़ियों आदि को बह जाने संज्ञा पुं० एक महत् का नाम । से रोकने के लिये लगाई जाती है। (३) लट्ठों या सारों आदि बहत्कंद-संज्ञा पुं० [सं०] (1) विष्णुकंद । (२) गाजर। से बनाई हुई वह रोक जो बंदरों में इसलिये लगा दी। हत्तण-संज्ञा पुं० [सं०] बाँस। जाती है जिसमें शत्रु के जहाज़ अंदर न आ सकें। (४) ब्रहत्त्वच-संज्ञा पुं० [सं०] नीम का वृक्ष । वह लट्ठा जो नदी आदि में नावों को छिछले पानी से बृहत्पत्र-संज्ञा पुं० [सं० ] (१) हाथी कंद । (२) सफेद लोध । बचाने और ठीक मार्ग दिखलाने के लिये गाया रहता है। (३) कासमई। (लश०) बृहत्पर्ण-संज्ञा पुं० [सं० ] सफेद लोध । खूर-संगा पुं० [देश॰ ] पश्चिम भारत में होनेवाली एक प्रकार की । बहत्पाटलि-संक्षा पुं० [सं०] धतूरे का पेड़। घास जिसके खाने से गौओं भैसों आदि का दूध और दूसरे हत्पाद-संज्ञा पुं० [सं० ] वट वृक्ष । बद का पेड़। पशुओं का बल बहुत बढ़ जाता है। इसमें एक प्रकार की : ब्रहत्याली-संशा पुं० [सं० बृहत्पालिन् ] बनजीरा । गंध होती है और यदि गौएँ आदि इसे अधिक खाती हैं तो वृहत्पील-संज्ञा पुं० [सं०] महापीलु । पहादी अखरोट । उनके दूध में भी वही गंध आ जाती है। यह दो प्रकार बहत्पव्य-संज्ञा पुं० [सं०] (1) पेठा । (२) केले का वृक्ष । की होती है, एक सफेद और दूसरी लाल । यह सुखाकर बहत्पुष्पी-संशा स्त्री० [सं० ] सन का पेड़। १०.१५ वर्षों तक रखी जा सकती है । खोई। बृहत्फल-संज्ञा पुं० [सं०] (1) चिचिंडा । चिचड़ा। (२) खूरना*:-कि० अ० दे. "डूबना"। कुम्हड़ा। (३) कटहल । (४) जामुन । खूरा-संशा पुं० [हिं० भूरा ] (1) कधी चीनी जो भूरे रंग की ब्रहत्फल-संज्ञा स्त्री० [सं०] (6) तितलौकी । (२) महेंद्र वारुणी। होती है। शकर । (२) साफ की हुई चीनी । (३) महीन (३) कुम्हड़ा । (४) जामुन । चूर्ण । सफूफ़। पृहदारण्यक-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध उपनिषद् जो दस पूरी-संज्ञा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार की बहुत छोटी बनस्पति । मुख्य उपनिषदों के अंतर्गत है। यह शतपथ ब्राह्मण के ६२३ हत्- कर तैयार में लकड़ियों