पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१८६

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बीरा २४७९ प्रायः बरसात आरंभ होने के समय ज़मीन पर इधर बीवी-संघा स्त्री० दे० "बीवी"। उधर रेंगता हुआ दिखाई पड़ता है। इसका रंग गहरा बीस-वि० [सं० विशति, प्रा. वीशति, बीसा 1 (1) जो संम्पा में लाल होता है और मखमल की तरह इस पर छोटे छोटे दर का तूना वा उनीस से एक अधिक हो। कोमल रोए होते हैं। इसे इंद्रवधू भी कहते हैं। उ०-- मुहा०-बीस बिम्बे अधिक संभवतः । जैसे,—बीस विस्वं हम (क) कोकिल बैन पाँति बग छूटी। धन निसरी जनु बीर सवेरे ही पहुँच जायँगे । उ०—(क) सासहु वीपन के अवनी- बटूटी।--जायसी । (ख) बीरबहूटी बिराजहि दादुर धुनि पति हारिरहे जिय में जब जाने । बीस बिसे व्रत भंग चहुँ ओर । मधुर गरज घन बरखहि सुनि सुनि बोलत भयो यो कही अब केशव को धनु ताने । -केशव । (ख) मोर । सुलसी। बोस बिये जानी महा मूरख बिधाता है।-पद्माकर । बीरा*--संज्ञा स्त्री० [हिं० बीका] (1) पान का वीथा। वि.दे. (३) श्रेष्ठ । अच्छा । उत्सम । उ.-नाय अचान उच्चकि के, "वीका"। (२) वह फूल फल आदि जो देवता के प्रसाद चढ़े तासु के मीस । ताकी जनु महिमा करी, बीस राजते स्वरूप भक्तों आदि को मिलता है। उ.-फत अपनी पर बीस ।-देवस्वामी। तीत नसावत में पायों हरि हीरा । सूर पतित तबहीं ले संज्ञा स्त्री० (१) बीन्स की संख्या । (२) बीस की संख्या का उठिहै जय हसि देह वीरा ।—सूर । द्योतक चिह्न । बीम का अंक जो इस प्रकार लिखा आता बीरो-संज्ञा पुं० [सं० वारि वा हिं. बीड़ा ] (1) चूना, कत्था है-२० । और सुपारी पड़ा हुआ पान का बीड़ा । उ०-तरिवन बासना-कि० स० [सं० विशन वा वेशन ] शतरंज था चौसर श्रवण नैन दोउ आजति नासा बेसरि साजत । बीरा मुख आदि म्वेलने के लिये बिसात बिछाना । खेल के लिये भरि चिबुक डिठीना निरखि कपोलनि लाजत ।—सूर । विगात फैलाना । (२) ढरकी के बीच में लंबाई के बल वह छेद जिसमें से बीसवा-वि० [हिं० बीस-+वॉ (प्रत्य॰)] जो गणना में उनीस के नरी भरकर तागा निकाला जाता है। (३) लोहे का वह बाद हो। थीम के स्थान पर पड़नेवाला। छेददार टुकड़ा जिस पर कोई दूसरा लोहा रखकर लोहार बीसी-संथा स्त्री० [हिं० बीस ] (१) बीस चीज़ों का समूह । छेद करते हैं। (४) कान में पहनने का एक प्रकार का कोड़ी। (२) ज्योतिष शास्त्र के अनुसार साठ संवत्सरों के गहना जिसे तरना भी कहते हैं। उ०—बीरी न होई । तीन विभागों में से कोई विभाग। इनमें से पहली बीसी विराजत कानन जानन को मन लावत धंधै । यमपीसी, दूसरी विष्गुबीसी और तीसरी रुद्र वा शिव वील-वि० [सं० विल ] पोला । अंदर से खाली ।। बीपी कहलाती है। उ.--बीसी विश्वनाथ को विराद बयो संशा पुं. वह भूमि जो नीची हो और जहां पानी भरा बारानवी बुनिए न ऐसी गति शंकर सहर की।-तुलसी रहता हो । जैसे, झील, ताल इत्यादि की भूमि । (३) भूमि की एक प्रकार की नाप जो एक एकड़ से कुछ संशा पु० [सं० विल्व ] (१) बेल । (२) एक ओषधि का कम होती है। उतनी भूमि जिसमें बीस नालियाँ हों। नाम । संजा पु० [सं० विशिख ] तौलने का काँटा । तुला । बीवर-संज्ञा पुं० [अ० ] एक प्रकार का जैतु जो उत्तरीय अमे संक्षा बा० [सं० हिं० विस्वा ] प्रति बीघे दो विस्वे की उपज रिका और एशिया के उत्तरी किनारे पर होता है और पानी जो ज़मीदार को दी जाती है। के किनारे सुंर बाँधकर रहता है। इसके मुँह में बड़े बड़े बीह*-वि० [सं० विशति, प्रा० यीसा ) बीस । उ.--साँचहु मैं और मज़बूत केटीले दाँत होते हैं और ऊपर नीचे चार चार ' लबार भुजबीहा । जौं न उपारउँ तव दस जीहा।- डा होती हैं, जो ऊपर की ओर चिपटी और कठोर होती तुलमी। है। इसके प्रत्येक पाँव में पाँच पाँच उँगलियाँ होती हैं और बीहड़-वि० [सं० विकट ] (१) उँचा नीचा । विषम । उबर पिछले पैरों की उँगलियाँ जुड़ी रहती है और दूसरी उँगली खाबड़। जैसे, बीहर भूमि, बीहड़ जंगल। (२) जो का नाखन भी दोहरा होता है। इसकी पूँछ भारी, नीचे ठीक न हो। जो सरल या सम न हो। विषम | विकट । ऊपर से चपटी और छिलकों से की होती है । इसकी नाक वि० [सं० विलग या बारी ] अलग । पृथक । जुदा । उ०- और कान की बनावट ऐसी होती है कि पानी में गोता (क) साज सात बैकुंठ जस तस साजे खरसात। पीहर लगाने से आपसे आप उनके छेद बंद हो जाते हैं। इसका पीहर भाव तम खट खट उपर छान ।-जायसी । (ख) चमड़ा जो समूर कहलाता है, कोमल होता और बढ़े दामों ना वह मिला न बीहरा ऐसह रह भरपूर । जायसी को बिकता है। इसका मांस स्वादिष्ट होता है पर लोग (ग) बीहर मीहर सब की बोली। विधि यह कहाँ कहाँ इसका शिकार विशेषतः समदे के लिए ही करते हैं। सो खोली । —जायसी ।