पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१७९

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विहंडना २४७२ बिहन बिहंडना-कि० म० [सं० विघटना, प्रा० विहंडन । (१) खंड खंड : बिहागड़ा-संज्ञा पुं० [हिं० विहाग+डा (प्रत्य०) संपूर्ण जाति का कर डालना । तोड़ना । (२) काटना । (३) नष्ट कर देना। एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। इसके गाने का मार डालना। उ०~~(क) जै चमुट जै पंडमुंड भंडा- । समय रात को १६ दंड से २० दंड तक है। कोई इसे सुर व द्धिनि । जै सुरत जै रक्तर्वज बिहाल बिहंडिनि।-: हिंडोल राग की रागिनी कहते है और कोई इये सरस्वती, भूषण । (ख) चंड भुजदंड खंडनि चिहनि मुंड महिप । केदारा और मारवा के योग से उत्पन्न मानते हैं। मद भंग करि अंग तोरे । तुलपी (ग) तू अध के अघ बिहान-संज्ञा पुं० [सं० विभात, प्रा. बिहाड, विहाग ] सवेरा । प्रातः- ओघन खं है। अधिक अनेकन विधन विहहै।-लाल। काल । उ.-लखत येत सारी ढक्यो तरल तभ्योता कान । बिहँसना-क्रि० अ० [सं० विहसन ] मुस्कराना । मंद मंद पन्यो मनौ सुरसरि सलिल रवि प्रतिबिंब बिहान ।- हगना। उ.-जाहु बेगि संकट अति भ्राता । लछिमन बिहारी। बिहँ सि कहा सुनु माता ।—तुलसी। कि. वि. आनेवाले खरे दिन । कलह । कल । उ.- विहँसाना-कि० अ०(१) दे. "बिहरना"। उ०—(क) राता पकल यथा क्रम बबारि बखाने । राम होहि युवराज जगत देवि रंगराती । रुधिर भरी आइहिं बिहँसाती । लिहाने ।-रघुराज। जायसी । (ग्व) ततवन एक पग्बी विहंसानी । कौतुक एक बिहाना*-कि० स० [सं० वि+हा- छोड़ना ] छोड़ना । त्यागना। न देवहु रानी ।-जायसी । (२) प्रफुल्लित होना। उ.--(क) सुनु स्वगेस हरि भगति बिहाई । जे सुम्व खिलना (फूर का)। चाहाह आन उपाई ।-तुलनी । (ब) सहज सनेह कि० म० हँसाना । हर्षित करना। स्वामि सेवकाई । स्वारथ छल फर चारि बिहाई।- बिहगः-सेशा पुं० दे० "विग"। तुलसी। (ग) विमल घंस यह अनुचित एक । बंधु बिहाय बिहतर-वि० [फा०] बहुत अच्छा । बहेहि अभिषेकू। -तुलसी । (घ) देवी बिपुल बिकल विहतरी-संश! ना. [ फा०] भलाई । कुशल | बैदही । निम्पि बिहात करूप सम तेही।-तुलसी। बिहद्द -वि० [फा० बाद ] असीम । परिमाण से बहुत अधिक। क्रि० अ० व्यतीत होना । गुज़रना। बीतना । उ॰—(क) उ०—(क) भूपण भनत नाद बिहद नगारन के, नदी नद बढ़ी विरह की रैनि यह क्याह के न विहाय । सनिधि । मद गैबरन के स्लत हैं।-भूषण । (ख) देवनही कैसी कित्ति (ख) गहै बीन मकु रैनि बिहाई ।-जायसी। दिपति बिसही जासु, युगुलेश साहिबी विहही मनो देव- : विहारना-क्रि० अ० [सं० विहरण ] विहार करना । केलि वा राज ।-युगलेश। क्रीडा करना। उ.--(क) सुर नर नाग नव कन्यन के प्राण- बिहबल-वि [सं०] व्याकुल । उ०-झाई न मिटन पाई पति पति देवतान के हियन विहारे हैं। केशव । (ख) आए हरि आतुर है जब जान्यौ गज माह लाए जात जल पदुम सहस्र बरत तुम धारौ । विगु लोक में जाप बिहारी। में। यादीपति यदुनाथ ग्वगति साथ जन जान्यो विश्वल -रघुनाथदास । तब छाँदि दयो थल में -सूर । बिहाल-वि० [फा० बहाल ] व्याकुल । बेचैन । उ०---ताके भय बिहरना-क्रि० अ० [सं० विहरण ] घूमना फिरना । सैर करना। रघुर्वर कृपाला । सकल भुवन में फियों बिहाला।- भ्रमण करना । उ-जिन वीथिन बिहरें सब भाई। तुलसी। थकित होहि सब लोग लुगाई।-तुलसी। बिहिश्त-संज्ञा स्त्री० [ फा 0 ] स्वर्ग । बैकुंठ ।

  • -क्रि० स० [सं० विघटन, प्रा० विहडन ] (१) फटना। बिही-संशा HT० [फा०] (1) एक पेड़ जिसके फल अमरूद से

दरकना । विदीर्ण होना । उ०—(क) तासु दूत है हम मिलते जुलते होते हैं। यह पेशावर और काबुल की ओर कुल बोरा । ऐसहु मति उर विहरु न तोरा ।-तुलमी। होता है। (२) उक्त पेय का फल जो मेवों में गिना जाता (ख) मरु गल काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि है। (३) अमरूद। विहरति नहि छाती। तुलसी 1(२) टूटना फूटना। बिहीदाना-संज्ञा पुं० [फा०] बिही नामक फल का बीज जो बिहराना *-क्रि० अ० [हिं० बिहरना ] फटना । उ०—केरा दवा के काम में आता है। इन बीजों को भिगो देने से के से पात बिहराने फन सेस के।-भषण । लुभाब निकलता है जो शर्यत की तरह पिया जाता है। बिहरी -संज्ञा स्त्री० [हिं० व्योहार | चंदा । बरार । भेजा। बिहीन-वि० [हिं० बिहान ] रहित । बिना। उ०---बारि-बिहीन मीन विहाग-संश। पुं० [?] एक राग जो आधी रात के बाद लग ज्यों व्याकुल त्यों ब्रजनारि सबै ।—सूर। भग २ बजे के गाया जाता है। यह राग हिल राग का विन-वि० [हिं० विहीन ] बिना। रहित । उ०—(क) निज संगी पुत्र माना जाता है। निज सम करत दुरजन मन दुख दन । मलयाचल है संत मा