पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१२७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

घाँही २४२० बाकली स्थान जाता है जब जोद शरीर से सटा नहीं रहता, कुछ दूर पर बाई चढ़ना (१) वायु का प्रकोप होना । (२) घमंड आदि रहता है। के कारण व्यर्थ की बात करना । बाई पचना=(१) वायु का बाँही-संज्ञा स्त्री० दे० "बाह"। प्रकोप शांत होना । (२) घमंड टूटना। शेखी मिटना । बाई बा-संज्ञा पुं० [सं० वाजल ] जल । पानी । उ०—(क) राधे तें: पचाना-धमंड तोड़ना । गर्व चूर करना । कत मान कियो री। धन हर हित रिपु सुत सुजान को संशा स्त्री० [हिं० बाबा, बाबी ] (1) स्त्रियों के लिये एक नीतन नाहिं दियो । बा-जा-पति अग्रज अंबा के भा. आदरसूचक शब्द । जैसे, अहल्याबाई, लक्ष्मीबाई।। नुथान सुत हीन हियो री।-सूर । (ख) राधा कैसे प्रान विशेष-इस अर्थ में इस शब्द का व्यवहार राजपूताने, गुज- बचावै ? । सबभार घर जा पति रिपु तिय जलयुत कबहुँ न रात और दक्षिण आदि देशों में अधिक होता है। हेरे। बा-निवासरिपु धर रिपु लै सर सदा सूल सुग्व (२) एक शब्द जो उत्तरी प्रांतों में प्राय: वेश्याओं के नाम पेरै। या-ज्वर नीतन ते सारंग अति बार बार झर लावै। के साथ लगाया जाता है। बाईस-संज्ञा पुं० [सं० द्वाविंशति, प्रा० बाईसा | बीस और दो की संशा पुं० [फा० बार ] बार । दफा मरतबा। उ०-कारे संख्या वा अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है-२२ । बरन डरावने कत आवत यहि गेह । के या लग्यौ, सम्वी! वि. जो बीस और दो हो। बीम से दो अधिक । लखे लगै थरहरी देह।—बिहारी । . बाईसवाँ-वि० [हिं० बाईम+वा ( प्ररय)] गिनने में बाईम के बाद-संशा स्त्री० दे० "बाई"। स्थान पर पड़नेवाला । जो क्रम में बाईप के स्थान पर हो। बाइबिरंग-संज्ञा स्त्री० [सं० विटंग ] मिहंग। | बाईसी-संशा स्त्री० [हिं० बाईस+ई (प्रत्य०)] (1) बाईस वस्तुओं बाइबिल-संजा स्त्री० [ यू० बाइबिल-पुस्तक ] ईसाइयां की धर्म का समूह । (२) वाईस पद्यों का समूह । जैसे, खटमल- पुस्तक । इंजील। बाईपी। विशेष-यह दो भागों में विभक्त है। एक प्राचीन, जो हिल, बाउ:-संज्ञा पुं० [सं० वायु ] ध्वा । पवन । या इब्रानी भाषा में थी और जिसे यहूदी भी मानते हैं। बाउर-वि० [सं० वातुल] [स्त्री बाउरी] (1) बावला । पागल । इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, मूमा के ईश्वरदर्शन आदि की (२) मोला भाला । सीधा सादा । (३) मूर्व । अज्ञान । कथा है। दूसरी नवीन या अर्वाचीन, जो यूनानी भापा (४) जो बोल न सके । मुका [गा। में थी और जिसमें ईमा की उत्पत्ति, उपदेश, करामात (५) बुरा। आदि का वर्णन है। ये दोनों ही भाग कई पोथियों के बाउरी -संज्ञा स्त्री० दे० "बावली"। संग्रह है। ये संग्रह ईसा की दूसरी और तीसरी शताब्दी संज्ञा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार की घास। में हुए थे। इन दोनों का अनुवाद संसार की प्रायः सभी बाका-संशा पुं० [सं० वायु हवा । पवन । भाषाओं में हो गया है। बाएँ-क्रि० वि० [हिं० बांयां ] बाई ओर । वाईं तरफ़ । बाइस-संशा पुं० फा०] सयथ । कारण । वजह । बाकचाल-वि० [सं० वाक्+चल ] बहुत अधिक बोलनेवाला। संज्ञा पुं० दे. "वाईय"। बकी। बातूनी । मुँहज़ार । उ०-बड़ो बाकचाल याहि बाइसवाँ-वि० दे० "बाईमा"। सूत्रत न काल निज, कहाँ तो बिचारि कपि कौन विधि बाइसिकिल-संज्ञा स्त्री० [ अं०] एक प्रसिद्ध गादी जिसमें आगे मारिये। हनुमान। पीछे केवल दो ही पहिए होते हैं। इसके बीच में खाली वाकना*:-कि० अ० [सं० याक ] बकना । प्रलाप करना । उ०- बैठने भर को छोटा सा स्थान होता है और आगे की ओर आम को कहत अमिली है अमिली को आम, आक ही दोनों हाथ टेकने और गाड़ी को घुमाने के लिये अडके : अनारन को आंकियो करति है। ..................."साँवरे आकार की एक टेक होती है। इसमें नीचे की ओर एक जू रावरे यो बिरह बिकानी बाल, बन बन शवरी लौं चक्कर लगा रहता है जो पैर के दबाव से घूमता है, जिससे बाकियो करति है।—भाकर । गादी बहुत तेजी से चलती है। पैर-गाही। वाकरी -संज्ञा स्त्री० [देश॰] पांच महीने की ख्याई गाय । बाई-संज्ञा स्त्री० [सं० वायु ] त्रिदोषों में से वात दोष जिसके बाकला-संशा पुं० [अ०] एक प्रकार की बड़ी मटर जिसकी प्रकोप से मनुष्य बेसुध या पागल हो जाता है। दे. फलियों की तरकारी बनती है। "वात"। बाकली-संज्ञा स्त्री० [सं० बकुल ] एक प्रकार का वृक्ष जिसके पत्ते रेशम क्रि० प्र० आना 1--उतरना। के कीड़ों को खिलाये जाते हैं। यह घृक्ष बहुत ऊँचा होता मुहा०-बाई की झोंक-(१) वायु का प्रकोप । (२) भावेश ।। है। इसकी लकड़ी भूरे रंग की और बहुत मजबूत होती है बाकिया