पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१२१

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बदुखव २४१४ बाँक बहुसव-वि० [सं० ] शल्लकी घृक्ष । सलई । बकरी खाती भी हैं। वैद्यक में बहेड़े का बहुत व्यवहार है। बहुस्वन-संज्ञा पुं० [सं०] (१) उल्लू । (२) शंख । प्रसिद्ध औषध त्रिफला में हब, बहेड़ा और आँवला ये तीन बॉटा-संज्ञा पुं० [सं० बा हुस्थ, प्रा. बाहुद्व ] [ to अल्प. बहूटी | . वस्तुण होती है। वैधक में बहेगा स्वादपाकी कसेला, कफ- बाह पर पहनने का एक गहना । पिस-नाशक, उष्णवीर्य, शीतल, भेदक, कासनाशक, रूखा, बह-संज्ञा स्त्री० [सं० वधू ] (1) पुत्रवधू । पतोहू । (२) पत्नी। नेत्रों को हितकारी, केशों को सुदर करनेवाला तथा कृमि स्त्री। (३) कोई नव विवाहिता स्त्री। दुलहिन । और स्वरभंग को नष्ट करनेवाला माना गण है। बहेड़े के बहकरी-संज्ञा स्त्री० दे. "बहुकरी"। पेड़ से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है जो पानी में बहदक-संज्ञा पुं० [सं०] संन्यासियों का एक भेद । एक प्रकार : नहीं धुलता । लकड़ी इसकी अच्छी नहीं होती पर तखते, का संन्यासी। हलके संदूक, हल या गाड़ी बनाने के काम में आती है। विशेष- ऐसे संन्यासियों को सात घर में भिक्षा मांग कर ! पर्या०—विभीतक । कलिदुम । कल्पवृक्ष । संवर्त । अक्ष । निर्वाह करना चाहिए। यदि एक ही गृहस्थ भर पेट भोजन तुष। कर्षफल । भूतवास । कुशिक । बहुवीर्य । तैलफल । दे तो भी नहीं लेना चाहिए। इनके लिये गाय की पूँछ : वासंत । हार्य । विषन्न । कलिंद। कासन्न । तोलफल । के रोएँ से बँधा त्रिदंड, शिक्य, कौपीन, कमंडलु, तिलपुष्पक । गावाच्छादन, कथा, पादुका, छत्र, पवित्र, चर्म, सूची, बहेतू-वि० [हिं० बहना ] (1) बहा बहा फिरनेवाला । इधर उधर पक्षिणी, रुद्राक्ष माला, वहिर्वास, खनित्र और कृपाण मारा मारा फिरनेवाला । जिसका कहीं ठौर ठिकाना न हो। रग्वने का विधान है। इन्हें सर्वाग में भस्म और मस्तक (२) आवारा । व्यर्थ घूमनेवाला । निकम्मा । पर त्रिपुंड धारण करना चाहिए तथा शिक्षा सूत्र न छोड़ना । बहेरा-संशा पुं० दे. “बहेबा"। चाहिए और योगाभ्यास भी करना चाहिए। बहेरी*-संज्ञा स्त्री० [हिं० बहराना ] बहाना । होला। उ.--- बहूपमा संज्ञा स्त्री० [सं०] वह अर्थालंकार जिसमें एक उप. मोहिन पत्याहु तो संग हरिदासी हुती पूछि देखि भटू कहि मेय के एक ही धर्म से अनेक उपमान कहे जाय । जैसे, . धौ कहा भयो मेरी सौं। प्यारी तोहि गठोंध न प्रतीति हिम हर हीरा हंस सी जस तेरो जसवंत । (मुरारिदान) छादि छिया जान दे इतनी बहेरी सौं। हरिदास । बहेंगवा-संज्ञा पुं० [सं० विहगम ] (1) एक पक्षी जिसे भुजंगा बहेला-संज्ञा पुं० [सं० बाह्य ] कुश्ती का एक पेंच। वा करचोटिया भी कहते हैं। बहेलिया-संज्ञा पुं० [सं० बध+हेला ] पशु पक्षियों को पकड़ने वि० [सं० विहगम ] (1) घुमकर । इधर उधर घूमनेवाला। या मारने का व्यवसाय करने वाला । शिकारी। अहेरी। (२) आवारा । बहेतू । । व्याध । चिदीमार । बहत-संज्ञा स्त्री० [हिं० बहना+एंत (प्रत्य॰)] वह काली मिट्टी जो बहार* -संज्ञा पुं० [हिं० वरना ] फेरा। वापसी। पलटा। तालों या गड्ढों में बह कर जमा हो जाती है। इसी मिट्टी उ-सबही ली. विसाहना अउ घर कीन्ह बहोर । के खपरे बनते हैं। बाम्हन तहवा लेड का गाँठि साँहि सुठि थोर ।-जायसी। बहेगवाf-संज्ञा पुं० [ देश० ] चौपायों की गुदा के पास पूँछ के : क्रि० वि० दे० "बहोरि"। नीचे की मांसप्रंथि। बहारना -त्रि० स० [हि० बहुरना ] (1) लौटाना। वापस बहेचा-संज्ञा पुं० [ देश घड़े का ढाँचा जो चाक पर से गल कर करना । फेरना । पलटाना । (२) ( चौपायों को ) घर की उतारा जाता है। इसे जब थापी और पिटने से पीट कर : और हाँकना । हाँकना। यढ़ाते हैं तब यह घड़े के रूप में आता है । (कुम्हार) बहारि*-अव्य० [हिं० बहोर ] पुनः। फिर। दूसरी बार । बाहेड़ा--संज्ञा पुं० [सं० विभातक, प्रा. वह एक बड़ा और उ०—अस्तुति कीन्ह बहोरी बहोरि ।-तुलसी। ऊँचा जंगली पेदको अर्जुन की जाति का माना गया है। बा-संज्ञा पुं० [ अनु० ] गाय के बोलने का शब्द । यह पतझाद में पत्ते झाड़ता है और सिंध और राजपूताने । संज्ञा पुं० [हिं० बेर ] बार । दफा । बेर । उ०—(क) के आदि सुखे स्थानों को छोड़ भारतवर्ष के जंगलों में सर्वत्र बाँ आवत यहि गली रह्यौं चलाय चलनादरसन की साधै होता है। बरमा और सिंहल में भी यह पाया जाता है। रहे सूधे रहत न नैन ।-बिहारी । (ख) मैं तो सों के बाँ इसके पत्ते महुए के से होते हैं। फूल बहुत छोटे छोटे होते कमी तू जनि इन्हें पस्याय । लगालगी करि लोयननि उर में हैं जिनके सबने पर बड़ी बेर के इतने बड़े फल गुच्छों में लाई लाय।-विहारी। लगते हैं। इनमें कसाव बहुत होता है, इससे ये चमका बांक-संज्ञा पुं० [सं० बंक ] (1) चंद्राकार बना हुआ टॉर जो सिझाने और रंगाई में काम आते हैं। ताजे फलों को भेद बों की बांह में पहनाया जाता है। भुजदंर पर पहनने