पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/११३

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बसेरी २४०६ बैल बाहनो संग्रह किया बनेरा । बस्ती में से दिया खदेरी बस्तमोदा-संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा। जंगल किया बसेरा । कबीर । (२) घर बनाना । रहना। बस्तर संज्ञा पुं० दे० "धन"। बस जाना । उ०—कहा भयो जो देश द्वारका कीन्हो दूर | बस्तगी -संशा स्त्री० [सं०] मेषभंगी। मेदासींगी । बसेरो। आपुनहीं या ब्रज के कारण करिहौ फिरि फिरि बस्ता-संशा पुं० [फा० ] कपड़े का चौकोर टुकड़ा जिसमें कागज़ फेरो।-सूर । बसेरा लेना-निवास करना । वास करना । । के मुह, बहीखाते और पुस्तकादि बाँधकर रखते हैं। बेठन । रहना । उ०-अरी ग्वारि मैंमंत बचन बोलत जो अमेरो। क्रि०प्र०—बाँधना । कब हरि बालक भए गर्भ का लियो बसेरो।-सूर।। महा०-बस्ता बाँधना काराण पत्र समेट कर उठने की तैयारी बसेरा देना=(१) रहने की जगह देना । ठहराना । टिकाना। करना। (२)आश्रय देना । ठिकाना देना । उ०-प्रभु कह गरलबंधु | यस्तार-संशा पुं० [फा० बस्ता ] एक में बंधी हुई बहुत सो समि केरा । अति प्रिय निज उर दीन बसेरा।-तुलसी। वस्तुओं का समूह । मुट्ठा । पुलिंदा। (३) टिकने वा बसने का भाव । रहना । बसना । आबाद | बस्ति-संज्ञा पुं० दे० "वरित"। होना । उ०-(क) तन संशय मन सोनहा, काल अहेरी | बस्ती-संज्ञा स्त्री० [सं० वसति ] (१) बहुत से मनुष्यों का घर नित्त । एक अंग बरखा कुशल पुछो का मित्ता-कवीर । बना कर रहने का भाव । आबादी। निवास । उ०—जिन (ख) परहित हानि लाम जिन केरे। उजरे हरष विषाद जिला गुन गाड्या बिनु बस्ती का गेह । सूने घर का बसेरे।-तुलनी। पाहुना तासों ला नेह ।-कोर । (२) बहुत से घरों का बसेरी-वि० [हिं० बसेरा ] निवामी। रहनेवाला । उ०—मानिक समूह जिनमें लोग बसते हैं। जनपद । जैसे, खेदा, गाँव, पुरहि कबीर बसेरी। मुद्दत सुना शेख तकि केरी। कसबा, नगर इत्यादि । जैसे,भाजपूताने में कोसों घले --कवीर। जाइए कहीं बस्ती का नाम नहीं। उ०--मन के मारे बन बसया-वि० [हिं० बसना ] घसनेवाला । रहनेवाला । गए, बन तजि बस्ती माहि। कहै कबीर क्या कीजिए या उ०—(क) सुनहु श्याम वै सब व्रजवनिता विरह तुम्हारे मन ठहर नाहि -कबीर । भई वावरी । नाहिन नाम और कहि आवत छाँदि जहाँ | बस्तु-संज्ञा स्त्री० दे० "वस्तु"। लगि कथा राबरी। कबहुँ कहत हरि माखन खायो कौन बस्त्र-संशा पुं० दे० "वस्त्र"। बसैया कहत गाँधरी । कबहुँ कहत हरि उखल बाँधे घर | बस्य-वि० दे० "वश्य" । घर ते ले चलो दांवरी-सूर । (ख) पगनि कर चलिही बहंगा-संज्ञा पुं० [सं० बहन+अंग ] बड़ी बहँगी। घारी भैया । प्रेम पुलकि उर लाइ सुअन सब कहति | बहँगी-संज्ञा स्त्री० [सं० वहन+अंग ] बोझा ले चलने के लिये सुमित्रा मैया।..........."मरत राम रिपुदवन लखन के तसज़ के आकार का एक ढाँचा । काँवर । चरित मरित अन्हवैया । तुलसी तय कर अजहु जानिबे विशेष-लगभग चार हाथ लंबी लचीली लकड़ी या बाँस के रघुबर नगर बसैया ।—तुलसी । (ग) काहु को है चतुरानन दोनों छोरों पर रस्सी का छीका लटका कर नीचे काठ का को बर कोउ गजानन आस बसैया ।हनुमान । चौकठा सा लगा देते हैं जिस पर बोझा रखा जाता है। बसोबास-संशा पुं० [हिं० बास+आवास ] निवासस्थान । रहने बाँस को बीचो बीच कंधे पर रखकर ले चलते हैं। की जगह । उ०-चारि भाँति नृपता तुम कहियो । चारि बहकना-कि० अ० [हिं० बहा ? ] (१) भूल से ठीक रास्ते से मंत्रिमत मन में गहियो । राम मारि सुर एक न बचिहें। दूसरी ओर जा पड़ना । मार्गभ्रष्ट होना । भटकना । जैसे,--- इंद्रलोक बसोबासहि रचिहैं। केशव । वह बहक कर जंगल की ओर चला गया। बसौंधी-संज्ञा स्त्री० [हिं० वास+आँधी ] एक प्रकार की रबड़ी संयो० कि०--जाना। जो सुगंधित और लच्छेदार होती है। (२) ठीक लक्ष्य या स्थान पर न जाकर दूसरी ओर जा बस्ट-संज्ञा पुं० [अ०] चित्रकारी में वह मूर्ति, चित्र वा प्रतिकृति पबना । चूकना । जैसे, तलवार बहकना, हाथ बहकना। जिसमें किसी व्यक्ति के मुख, अथवा छाती के ऊपर के भाग (३) किसी की बात या भुलाये में आ जाना। बिना मात्र की आकृति बनाई गई हो।। भला बुरा विचार किसी के कहने या फुसलाने से कोई काम यस्त-संज्ञा पुं० [सं०] (१) सूर्य । (२) बकरा। कर बैठना । उ-बहकन इहि बहनापने जब तब, पीर, यस्तकर्ण-संशा पुं० [सं०] (१) शाल का पेड़ । (२) असना का विनास । बचे न बड़ी सबीलह चील घोसवा मांस ।- पेड़। पीतशाल वृक्ष । बिहारी । (४) किसी बात में ला जाने के कारण शांत बस्तगंधा-संशा स्त्री० [सं०] अजगंधा । अजमोदा। होना । बहलना (बच्चों के लिए) । (५) भापे में A