पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१०१

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बरियाल २३९४ सकता है । इस पौधे को खिरेटी, बीजबंध और बनमेथी । उ.--(क) सूरदाप यरु उपहास सहोई सुर मेरे नंद- भी कहते हैं। सुवन मिलें तो पै कहा चाहिए। सूर । (ख) बरु तीर पर्या०-वाट्यपुषी। समांशा। विलला । बलिनी । बला।। मारहि लपन पै जब लगि न पाय पस्खारिहीं। तब लगि ओदनी । समंगा । भद्रा । खरककाष्टिका । कल्याणिनी । न तुलसीदास नाथ कृपालु पार उतारिहौं।-सुलमी। भद्रवला । मोटापाटी । बलादया । शीतपाकी। वाव्यवाटी।। वरुआ-संज्ञा पुं० [सं० बटुक, प्रा० बडुअ] (1) षटु । ब्रह्म- निलया । वाटिका । खरयष्टिका । ओदनाह वा । वातघ्नी । चारी। जिसका यज्ञोपवीत हो गया हो पर जो गृहस्थ न कनका । रक्तत दुला । ऋरा । प्रहासा । वारिगा । फणि हुआ हो। (२) माझणकुमार । (३) उपनयन संस्कार । जिहिका । जयंती। कठोरयष्टिका । जनेऊ का संस्कार। बरियाल-संज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का पतला बाँस । बाँसी। संज्ञा पुं० [हिं० बरना ] मूंज के छिलके की बनी हुई बद्धी बरिला-संशा पुं० [हिं० बड़ा, वग ] पकौड़ी या बड़े की तरह का जिससे डलियाँ आदि बनाई जाती है। एक पकवान । उ०-बने अनेक अन्न पकवाना । बरिल | बरुका-अव्य० दे० "बरु"। इरहर स्वादु महाना। रघुराज । बरुन*1-संज्ञा पुं० दे. "वरुण"। वरिला-संज्ञा पुं० [देश ] सनीखार । बरुना-संज्ञा पुं० [सं० वरुण ] एक सीधा सुदर पेड़ जिसकी बरिखंड*--वि० [सं० वलवन ] (१) बलवान । बली । (२) पत्तियाँ साल में एक बार झड़ती हैं। कुसुम काल में यह प्रचंड । प्रतापी। पेड़ फूलों से लद जाता है। फूल सफेद और सुगंधित बरिषा*-संशा ली. दे. “वर्षा" । उ.-ये श्यामबन तू होते हैं । लकड़ी चिकनी और मजबूत होती है जिसे खराद दामिनि प्रेमपुंज वरिषा रस पीजै। हरिदास । कर अच्छी अच्छी चीजें बनती है। ढोल, कंधियाँ और धरिष्ठ-वि० दे० "वरिष्ठ"। लिखने की पट्टियाँ इस लकड़ी की अच्छी बनती हैं। बरुना बरिसा-संशा पुं० [सं० वर्ग] वर्ष । साल । उ.--(क) पाँच भारतवर्ष के सभी प्रांतों में होता है और बरसात में बीजों बरिस महँ भई सो बारी । दीन्ह पुरान पदह बहसारी। से उगता है । इसे बन्ना और बलामी भी कहते हैं। जायसी । (ख) तापस वेष विशेष उदासी । चौदह बरिस ! बरुनी-संहा स्त्री० [सं० वरण ढॉकना ] पलक के किनारे पर के राम बनवापी-तुलसी। बाल । उ.-अंजन बरुनी पनच के लोचन बान चलाय । बरी-संज्ञा स्त्री० [सं० वटी, प्रा. बड़ी ) () गोल टिकिया। बरुला-संज्ञा पुं० दे० "बल्ला"। बटी । (२) उई या मूंग की पीठी के सुखाए हुए छोटे बरुवा-संज्ञा पुं० दे० "वरुआ"। छोटे गोल टुकड़े जिनमें पेठे या आलू के कतरे भी पड़ते वरूथ-संज्ञा पुं० दे. "वरूय" । हैं। ये घी में तलकर पकाए जाते हैं। उ०---पापर, बरी, | बरूथी-संज्ञा स्त्री० [सं० वरूथ ] एक नदी जो सई और गोमती अचार परम शुचि । अदररत्र औ निशुवन है है रुधि।- के बीच में है । उ.-बहुरि वरूथी सरित लखि उतरि सूर । (३) वह मेवा या मिठाई जो दूल्हे की ओर से गोमती आसु । निरख्यो सास विशाल बन विविध विहंग दुलहिन के यहाँ जाता है। विलासु ।-रघुराज । संशा मा० [ देश० ] एक प्रकार की घास या कदन्न जिसके । बरेंडा-संज्ञा स्त्री० [सं० वरंडक गाला, गोल लकड़ा ] (1) लकड़ी का दानों को बाजरे में मिलाकर राजपूनाने की ओर ग़रीब । वह मोटा गोल लट्ठा जो खपरैल या छाजम की लंबाई के लोग खाते हैं। बल एक पाखे से दूसरे पाखे तक रहता है । इसीके आधार वि० [फा०] मुक्त। छूटा हुआ । बचा हुआ। जैसे, ।। पर छप्पर या छाजन का रट्टर रहता है। इलज़ाम से बरी । (२) छाजन या खपरैल के बीचोबीच का सबसे ऊँचा भाग। मि०प्र०—करना ।—होना । उ.-यह उपदेश सेंत ना भाए जो चदि कही बढ़े।

  • 1 वि० दे० "बली" 1 30-धरम नियाउ चला सत-

भाखा । दूबर बरी एक सम राखा ।—जायसी। बरेंडो-संज्ञा स्त्री० दे० "बहा"। बरीस-संज्ञा पुं० दे० "वर्ष" । उ०—(क) जानि लखन सम देहि बरे*-क्रि० वि० [सं० बल, हिं० बर ] (1) ज़ोर से । बल- असीसा । जियहु सुखी सय लाख बरीसा।-तुलसी। पूर्वक । (२) ज़बरदस्ती से। (३) ऊँची आवाज़ से। (ख) नंद महर के लाविले तुम जीओ कोटि बरीस ।-सूर । ॐसे स्वर से । उ०-बोलि उठौंगी बरे तेरो नातू जो बाट बह-भव्य० [सं० वर=श्रेष्ठ, भला ] भले ही। ऐसा हो जाय में लालन ऐसी करोगे। तो हो जाय । चाहे। कछ हर्ज नहीं। कल परवा नहीं। अव्य० [सं० वर्त-पलटा. हिं. बत, बढे 100 पल में।