पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४५६

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दीया २१०० तीर्थकर तीया'बु-सचा क्षो[सं० श्री.] दे० 'तीय। उ०--माघ मकर गत रवि जर होई। तीरथपतिहि भाव सर दीया-संच पुं० [हिं० ] दे० 'विक्की' या 'तिडी'। कोई ।--मानस, १०४४। तीरंदाज-सा पुं० [फा० तीरंदाज ] वह जो तीर चलाता हो। तीरभुक्ति-- सका स्त्री० [सं०] गंगा, गड़की पौर कौशिकी इन तीन तीर पलानेवासा । नदियों से घिरा हुमा तिरहुत देश तीरंदाजी- श्री [फा०तीरदाबी] तीर चलाने की विद्या तीरची-वि० [सं० तीरवतिन् ] १. तट पर रहनेवाला । किनारे या किया। पर रहनेवाला । २ समीप रहनेवाला । पास रहनेवाला । वीर-सचा पुं० [सं०] १ नदी का किनारा । कुन । सट 1 उ०- पडोसी । ३ तीरस्थ । सौर पर स्थित। निसिसिनि मरिन तर न तीरस्थ-सबा पुं० [सं०] १ नदी के तीर पहुंचाया हमा मरणासन्न बागा ।-मानस, १४०। व्यक्ति । २ पास । समीप । निकट । -विशेष--अनेक जातियो में यह प्रथा है कि गेगी बब मरने को विशेष-इस अर्थ में इसका उपयोग विभक्ति का खोप करके होता है, तब उसके मुबंधी पहले ही.. उसे नदी के तीर पर ले क्रियाविशेषण की घरह होता है। जाते हैं, क्योंकि धार्मिक दृष्टि से नदी के तौर पर मरना ३ पीसा नामक धातु । ४. रांगा। ५ गंगा का तट (को०)।६ मधिक उत्तम समझा जाता है। एक प्रकार का वाण (को०)। २.तीर पर स्थित । वीर पर बसा हुमा। . तीरा -सम पुं० [हिं॰] दे॰ 'तीर'। वीर-सक पुं० [फा०] चाण। शर । १०–तीरी घर सौर दीराट-सभा पुं० [ से० ] लोध । सहि, सेला उपर सेज |--हम्मीर०, पृ०४८। वीरित–वि० [सं०] निरणय किया हुधा किया हपा [को०] । विशेष-यद्यपि पंचदशी पावि माधुनिक प्रयों में तीर शन्द पाण के पर्थ में पाया है, तथापि यह शब्द वास्तव मे है वा तीरिता पुं०१ कार्य की पूर्णता या समाप्ति। २ रिश्वत या फारसी का। अन्य साधनों से दडित होने से बचना [को०) । कि.प्र०-अलाना ।-छोडना ।--फेंकना।-समना । तीरु-सधा पुं० [सं०] शिव । महादेव । २ थिव की स्तुति । मुहा०-तीर चलाना=युक्ति मिहाना। रग ढगा- लगाना। तीर्ण-वि० [सं०] १ जो पार हो गया हो। उत्तीणं। २ को पैसे,--तीर तो गहरा अलाया था, पर खाली गया। तीर सीमा का उल्लघन कर चुका हो। ३.वो भीगा हमा फेंकना-दे० = 'तीर चलाना' । लगे तो तीर नही ठो तुक्का- - हो । तरबतर। कार्यसिद्धि पर ही साधनको उपयोगिता है। तोएंपदा-- श्री० [सं० सालमूप । मुनी। ' तीर-सा पुं० [?] अहाज का मस्तूल। तीर्णपदी-सञ्ज्ञा स्त्री० [ से•j दे० 'तीर्णगदा। तीर-वि० [हिं० तिरना (-पार करना) पारंगत । खानकार। तणिप्रतिज्ञ-वि० [से० ] यो पपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हो [को०] । उ०-बादसाह करे जिकीर सच्च हिंद फफोर। ब्रह्मज्ञान में तीणी सभा सी [सं०] एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक तोर रणधीर माए है।-दक्खिनी०, १०५० ॥ नगण मौर एक गुरु (III) होता है। इसको 'सती', 'तित्व' तीरकस -संक पुं० [फा. तीरकश] तरफथ। 30.--लिए पौर तरणिका' भी कहते हैं । जैसे, नगपती। पनसतो। चिव लपार तौरकस मारे ।-हम्मीर०, पृ०३०॥ कद्दौ । मुख लहौ। तीरकारी -सहा औ० [फा. तीर+कारी । बाणों की वर्षा। तीर्थकर-सचा पुं० [सं० तीर्थर]- जैनियों के उपास्य देव को उ.--पई वीरकारी छुटे नाव बान । परी सोर को घुध देवतामो से भी श्रेष्ठ मोर सब प्रकार के दोषों से रहित, सुभझ न पानं । पृ. रा०, ११४५१ । । मुक्त मौर मुक्तिदाता माने जाते हैं। इनकी मूर्तियां दिगबर वीरगर- पुं० [फा०] वह जो तीर पनाता हो । तीर पनानेवाला बनाई जाती हैं और इनकी पाकृति प्राय विलकुल एक ही कारीगर। 8.-गुरु कीन्हों इक्कीसवों ताधि तोरगर जान । होती है । केवल उनका पर्ण पौर उनके सिंहासन का साकार -मनविरक्त०, ३० २६७ । - ही एक दूसरे से भिन्न होता है। तीरज-संवा पुं० [सं०] किनारे पर का वृक्ष (को॰] । विशेषगत उत्मपिणी में चौबीस तीर्थकर हप.थे जिनके नाम ये तीरण-संहा पुं० [सं०] फरंज।। है-१ केवलज्ञानी । २ निर्वाणी । ३ सागर । ४ महाथय । ५ विमलनाथ । ६ सर्वानुभूति । ० श्रीधर । ६ दत्त । तीरथ- स ० [सं० तीर्थ ] . 'ती'। उ०-तीरथ मनादि पपगंगा मनीकनिकादि सात प्रावरण मध्य पुन्य कपी धसी ६ दामोदर । १० सुतेष । ११. स्वामी। १२. मुनिसुव्रत । १३ सुमति । १४. शिवगति । १५ पस्ताग । १६ नेमीश्वर । है।-भारतेंदुप्र० मा० १, पृ० २८१। १७ मनल । १८ यशोधर ।,१६ कृनार्थ। २०. जिनेश्वर । विशेष-तारण के यौगिक शब्दों के लिये दे० 'तीर्थ' से २१ शुद्धमति । २२ शिवकर । २३ स्थदन पौर । २४. यौगिक शन्य। सप्रति । वर्तमान प्रवपिणी के मारंभ में जो चौबीस तीर्थकर तोरयपतिल-सहा ई. [ हि० तौरय+पति ] तीर्थराज । प्रयाग। हो गए हैं उनके नाम ये है-