पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४४५

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विर्यभेद Ret तिर्यक्रभेद-संवा पु० [सं.] दो सहारों पर टिकी हुई वस्तु का पीच इससे अंगरेजी फौज के देशी सिपाही मात्र तिलगे कहे में दवाव पड़ने से टूटना । पाने लगे। २ सिपाही । सैनिक तिर्यकस्रोतसू-संध पुं० [सं०] १. वह जिसका फैलाव प्राडा हो । २ । 'पीय जिसके पेट में खाया दुपा चाहार पाडा होकर जाता चिलंगा [हिं० सीन+अंग] एक प्रकार का कनकौवा ।। हो। वह जीव जिसका पाहार निगलने का नल खडा न हो, तिलंगा-संघा पुं० [देश॰] [स्त्री० तिलंगी पाग का बड़ा करण। पाप हो । पशु पकी। पड़ी चिनगारी । विशेष-पुराणों में जीव सृष्टि के उस्रोतस्, नियंकनोतम् तितंगाना-सया पुं० [सं० तैसंग ] तैलंग देश। मादि कई वर्ग किए गए हैं। भागवत में तियंकस्रोतस् २८ विलंगी-सक्षा पु० [सं० तेलग] तिलंगाने का निवासी। तेलंग। प्रकार के माने गए है-(१) द्विार (दो खुरवाले)-गाय, 6.-नहिं जालंधर मार बंग चंगीन सिलगी-पु रा०, पकरी, भंस, कृष्णसार मृग, सूमर, नीलगाय, रुरु नामक मृग । १२।१३।। (२) एकसुर-गदहा, घोड़ा, स्वपर, गौरमृग, शरम, सुरा- विलंगी--सधा स्त्री० [हिं० तीन+लंग ] एक प्रकार की पतंग। गाय । (३) पंचनख-कुत्ता, गीदड, मेदिया, बाघ, विल्ली, तिलंगी--सपा सी० [हि. तिलंगा] माग का छोटा कण । चिनगारी मी हरहा, सिंह, बंदर, हायी, कछुवा, मेढक इत्यादि । (४) जल- तिलंजलि-सपा स्त्री० [हिं०] ३० तिलांजलि। -लोफ साज पर-मरनी। (५) सेपर-गोध, पगला, मोर, हस, कौवा मी गेल को देह तिलजुलि दान ।--श्यामा, पु. ९.) मादि पक्षी । ये सब जीव शानशून्य प्रौर तमोगुणविशिष्ट कहे विलंतुद-संपा पु० [सं० विलन्तुव ] तेली [को०] । गए है। इनके अत करण में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं पत- तिल-सका [१०] १. प्रति वर्ष वोया पानेवाला हाय टेढ़ हाथ माया गया है। ऊँचा एक पौधा जिसकी खेती संसार के प्राय सभी गरम विर्यगयन--सदा पुं० [सं० तियंक + पयन ] सूर्य की वार्षिक परि- देशो में तेल के लिये होती है। क्रमा (को०] 1 विशेप-इसकी पत्तियां पाठ दस मगुल तक लबी पौर तीन चार विर्यगीत-रि० [सं०] तिरछा देखनेवाला [को॰] । मंगुल पौड़ी होती हैं। ये नीचे की पोर ठो ठोक भामने तिरंगीश---सबा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण (को०] । सामने मिसीहई लगती है, पर पोड़ा ऊपर चलकर कुछ तिर्यमाति-सशी (सं०] १.विग्छी या टेदी पाल । २. कर्मवण मतर पर होती है। पत्तियो के किनारे सीधे नहीं होते, टेक पशु योनि की प्राप्ति । मेढ़े होते हैं। फूल गिलास फे माझार, ऊपर चार दलों में विभक्त होते है। ये फूल सफेद रंग के होते है, केवल मुह पर तियग्गामी-सकसेतियंगामिन् ] केकड़ा (को॰] । भीतर की पोर वैपनी धम्बे दिखाई देते है। बीजकोश तियग्गामी-वि० तिरछी या टेढी घाल पलनेवालाको संबोतरे होते हैं जिनमें तिल चोग मरे रहते हैं। ये वीष विर्यग्दिक-संशा श्री० [म०] उत्तर दिशा [को॰] । चिपटे और लवोतरे होते हैं। हिंदुस्तान में विस दो प्रकार का तिर्यग्दिश-सझा स्त्री० [म.] उत्तर दिशा । होता है-सफेद पोर डाला। तिल की दो फसलें होती है- तिर्यग्यान--समापुं० [.] कड़ा। कुवारी पोर बैठी। कुवारी फसल बरसात में ज्वार, बाजरे, तिय योनि-बानी [मा पशुपक्षी पादि जीव । २ तिर्यकस्रोतस्'। धान प्रादि के साथ अधिकतर बोई जाती हैं। 'ती फसल यदि तियच-सहा पुं० [सं०] दे० 'तियंक। कातिक में बोई जाय तो पुस माघ तक तैयार हो जाती है। तिलंगनी--सा स्त्री.हि. तिल+भगिनी एक प्रकार की मिठाई उमिद् शालवेत्तामो का अनुमान है कि तिल का भादिस्पान पफिफा महाद्वीप है। वहाँ पाठ नौ जाति के जगली तिल को चोनी में तिल पागकर बनती है। पाए जाते है। पर तिस चन्द का व्यवहार सस्कृत में प्राचीन विलंगसा-सा पुं० [ ] एक प्रकार का बलूत जो हिमालय पर है, यहां तक कि जब मोर किसी बीप से तेल नहीं निकाला नेपाल से होकर पंजार तक होता है। प्रफगानिस्तान में मी गया पा, तप सिम से निकाला गया। इसी कारण उसका यह पेड़ पाया जाता है। नाम ही तेल (तिल से निकला हमा) पह ग्या। अपर्यवेद विशेष-इसको लकड़ी मजबूत होती है, इमारतों में लगती है सक में तिल मोर धान ठास तर्पण का उल्लेख है। माषकल तथा हम, झप्पान का बंडा मादि बनाने के काम में पाती है। भी पितरों तर्पण मे तिल का व्यवहार होता है। वैद्यक में शिमले पासपास के जगलों में इसकी लकड़ी का कोयला तिल भारी, स्निग्ध, गरम, फफ-पित्रा-कारफ, बलवर्धक, केशों का पाता है। को हितकारी, स्तनों में दुघ उत्पन्न करनेवाला, मलरोषक दिलंगा'-सबा [हिं० तिलगाना, म सङ्ग] १ पगरेजी फोन मौर वातनापाक माना जाता है। तिल का तेल यदि फुछ का देशी सिपाही। अधिक पिया जाय, तो रेषक होता है। विशेष---पहले पहल स्टि इडिया कंपनी ने मदरास में किला पर्या०-होममान्य । पवित्रा पितृतर्पण पाप न । पुतधाम्य । बनाकर वहा के तिसंगियों को पपनी सेना में भरती किया था। जटिष्ठ । बनोद्भव । स्नेहफल । वैलफष ।