पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१६७

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ज्योतिर्लोक ज्योतिष्का में घोर युद्ध होने लगा दब झगड़ा निपटाने के लिये एक नक्षत्र में पडती थी। इसी से कृष्ण ने कहा है कि 'महीनों में कालाग्नि सदश ज्योतिलिंग उत्पन्न हमा जिसके चारों ओर मैं मार्गशीर्ष हूँ। प्राचीन हिंदुमो ने ध्रुव का पता भी भयकर ज्वाला फैल रही थी। यह ज्योतिलिग प्रादि, मध्य अत्यत प्राचीन काल में लगाया था। प्रयन चलन का सिद्धात मौर भत रहित पा। इस कथा का अभिप्राय ब्रह्मा और विष्णु भारतीय ज्योतिपियों ने किसी दूसरे देश से नहीं लिया, से शिव को श्रेष्ठ सिद्ध करना ही प्रतीत होता है। क्योकि इसके मवध मे जब कि युरोप में विवाद था, उसके २ भारतवर्ष में प्रतिष्ठित शिव के प्रधान लिंग जो बारह हैं। सात पाठ सौ वर्ष पहले ही भारतवासियो ने इसकी गति धादि वैद्यनाय माहात्म्य मे इन बारह लिगों के नाम इस पकार हैं। का निरूपण किया था। वराहमिहिर के समय में ज्योतिष के सोभनाथ सौराष्ट्र में, मल्लिकार्जुन श्रीशैल में, महाकाल उज्ज संवध में पांच प्रकार के सिद्धांत इस देश में प्रचलित थे-सौर, यिनी मे, पोकार नर्मदा तट पर (अमरेश्वर मे), केदार पैतामह, वासिष्ठ, पोलिश पोर रोमक । सौर सिवात सवधी हिमालय में, भीमशकर डाकिनी में, विश्वेश्वर काशी मे, सूर्य सिद्धात नामक ग्रंथ किसी और प्राचीन ग्रथ के माधार पर श्यवक गोमती किनारे, वैद्यनाथ चिताभूमि में, नागेश्वर तारका प्रणीत जान पहता है । वराहमिहिर भौर ब्रह्मगुप्त दोनों ने इस में, रामेश्वर सेतुवध में, घृष्णेश्वर शिवालय मे। ग्रय से सहायता ली है । इन सिद्धात प्रथों मे ग्रहो के भुजाण, ज्योतिर्लोक-सहा पुं० [सं०] १ कालचक्र प्रवर्तक ध्रव लोक । २ स्थान, युति, उदय, मस्त प्रादि जानने की क्रियाएँ सविस्तर दी उस लोक के अधिपति परमेश्वर या विष्णु। गई हैं। अक्षाश मौर देशातर का भी विचार है। पूर्व काल में विशेप-भागवत मे इस लोक को सप्तर्षि मडल से १३ लाख देशातर लका या उज्जयिनी से लिया जाता था। भारतीय योजन और दूर लिखा है। यहीं उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव स्थित ज्योतिषी गणना के लिये पृथ्वी को ही केंद्र मानकर चलते थे हैं जिनकी परिक्रमा इद्र कश्यप प्रजापति तथा ग्रह नक्षत्र मादि और ग्रहो की स्पष्ट स्थिति या गति लेते थे। इससे ग्रहो की बराबर करते रहते हैं। कक्षा आदि के सवध मे उनकी और माज की गणना मे कुछ ज्योतिषिद्-सका पुं० [सं०] ज्योतिष जाननेवाला । ज्योतिषी । मतर पडता है। ज्योतिर्विद्या-सा स्त्री० [सं० ] ज्योतिष विद्या । कातिवृत्त पहले २८ नक्षत्रों में ही विभक्त किया गया था। ब्योतिहस्ता-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा । राशियों का विभाग पीछे से हुआ है। वैदिक ग्रथो में राशियों के नाम नहीं पाए जाते । इन राशियों का यज्ञों से भी कोई ज्योतिश्चक्र—सचा पुं० [सं० ] नक्षत्र और राशियो का मडल । सबंध नहीं है। बहुत से विद्वानों का मत है फि राशियों पौर ज्योतिष-सधा पुं० [सं०] १ वह विद्या जिससे अंतरिक्ष में स्थित दिनो के नाम यवन ( यूनानियों के ) सपर्फ के पीछे के हैं। ग्रहो नक्षत्रों मादि की परस्पर दुरी, गति, परिमाण प्रादि का अनेक पारिभाषिक शब्द भी यूनानियो से लिए हुए हैं, जैसे,- निश्चय किया जाता है। होरा, दृषकाए केंद्र , इत्यादि। विशेष-भारतीय भार्यों में ज्योतिष विद्या का ज्ञान प्रत्यत ज्योतिष के प्राजकल दो विभाग माने जाते हैं-एक सिद्धात प्राचीन काल से श। एज्ञो की तिथि प्रादि निश्चित करने मे या गरिणत ज्योतिष, दूसरा फलित ज्योतिष । फलित में ग्रहों इस विद्या का प्रयोजन पडता था। पयन बलर के क्रम का शुभ अशुभ फल का निरूपण किया जाता है। पता परावर वैदिक पथो में मिलता है। जैसे, पुनर्वसु से २. अस्त्रो का एक सहार या रोक जिससे चलाया हुया भरत मृगशिरा (जेद), मृगशिरा रोहिणी (ऐतरेय ग्रा०), निष्फल जाता है। रोहिणी से कृतिका (तत्ति० म०) कृत्तिका ते भरणी (वेदांग विशेष-इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है। ज्योतिए) तैत्तरीय सुहिता से पता चलता है कि प्राचीन काल न ज्योतिषिक राज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करने म वामत विपुहिन कृत्तिका नक्षत्र में पड़ता था। इसी वासंत ज्या वाला । ज्योतिथी। विपुत्रद्दिन से वैदिक वर्ष का मारभ माना जाता था, पर अयन की एला माघ माह से होती थी। इसके पीछे वर्ष ज्योतिधिकर--वि० ज्योतिप सबधी। की गएना शारदविषवहिन से भारभ हुई। ये दोना प्रकार ज्योतिषी'-सज्ञा पुं० [सं० ज्योतिपिन् ] ज्योतिष शास्त्र का जानने- को गणनाएं वैदिक ग्रंथो में पाई जाती है। वैदिक वाला मनुष्य । ज्योतिविद् । दैवज्ञ । गएक। काल में भी चामन विपवहिन मृगशिरा नक्षत्र में भी ज्योतिषी सञ्चा की० [ मे] तारा । यह । नक्षत्र । पड़ता था। इसे एडित बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद योतिष्य--एका पु० [सं०] १ ग्रह, तारा, नक्षत्र पाहि का समूह । स अनेक प्रमाण देकर मिव किया है। कुछ लोगों ने २ मेथी। ३ चित्रक वृक्ष । चीता । ४ मनियारी का पेड़ । निश्चत किया है कि वासत विवाहित की राह स्थिति ईसा ५ मे पर्वत के एक शृग का नाम । ६ जैन मतानुसार 3 ४००० वर्ष पहले यी अन इसमें कोई सदेह नहीं कि ईसा देवतानो का एक भेद जिसके मतर्गत चद्र, तारा, ग्रह, नक्षत्र पाच छह हजार वर्ष पहले हिंदो को नक्षत्र भयन मादि का और मक हैं। पान या और वे यज्ञो के लिये पत्रा बनाते थे। शारद वर्ष के पम मास का नाम अग्रहायण था जिसकी पूर्णिमा मृगशिरा ज्योविष्का-~सहा ली [स०] मालगनी। ४-२०