पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/५२१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

"चौपाड़ चौत्रा ...पर साधारणतः लोग दो चरणों को ही (जिन्हें वास्तव में चौफला--वि० [हिं०ची-फल जिसमें चार फल या धारदार ....""प्राली कहते हैं ) चौपाई कहते और मानते हैं। मात्रिक के लोह हो (चाय)। - अंतिरिक्त कुछ चौपाइयां ऐसी भी होती हैं जो वर्णवृत्त के चौफलिया-वि०fहिं० चौ-पूर---इया (प्रत्य॰)] १. जिसमें चार -..' अंतर्गत आती है और जिनके अनेक भेद और भिन्न भिन्न र भिन्न भिन्न फूल एक साथ निकलते हों (पौधा)। २. जिसमें चार कुल · नाम है । उनका वर्णन अलग अलग दिया गया है। - एक साय बने हों (चित्र) । २. चारपाई । खाट। चौफेर-कि० वि० [हिं० त्री-फेर चारो ओर । चारो तरफ । चौपाड़-संचा पुं० [हिं० चौपाल] दे० 'चौपाल'। चौफेरी-संक्षा मी० [हि घो- रा ] चारो ओर घूमना । चौपायनि-संज्ञा पुं० [सं०] चुप नामक कृषि के वंशज । परिक्रमा। चौपाया- 'संका पुं० [सं० चतुष्पद, प्रा० घउप्पाव] चार पैरोंवाला चौफेरी-कि० दि० चारो प्रोर । .. पशू । गाय, बैल, मैस यादि पशु । (प्रायः गाय बैल प्रादि चौफेरी'--संज्ञा सी मुगदर का एक हाथ जिसमें बगली का हाय .के लिये ही मधिकं बोलते हैं। करके मुगदर को पीठ की पोर से सामने छाती के समानांतर चौपाया-वि०.जिसमें चार पावे लगे हों। लाकर इवना तानते हैं कि वह छाती की बगल में बहुत दूर ... चौपारी-संशा स्री० [हिं० घोपाल] दे॰ 'चौपाल'। तक निकल जाता है। ' 'चौपाल-संत्रा हिं० चौबार] १. खुली हुई बैठक । लोगों के चौबंदी-संया स्त्री० [हित्रो+यंद] १. एक प्रकार का छोटा चुस्त .. बैठने उठने का वह स्थान जो ऊपर से छाया हो, पर चारों अंना या पुरती जिसमें जामे की तरह एक पल्ला नीचे और पोर खुला हो। एक पल्ला ऊपर होता है और दोनों बगल चार बंद लगते विशेष गांवों में ऐसे स्थान प्रायः रहते हैं जहाँ लोग बैठकर हैं। बगलबंधी। २. राजस्व । फर। ३.घोड़े के चारो • पंचायत, बातचीत आदि करते हैं। सुमों की नालबंदी। ५. चारों ओर से बंद करने, घेरने, बांधने - २. वैठक । उ०-सब चौपारहि चंदन बंपा। बैठा राजा भइ का भाव। तब सभा ।-जायसी (शब्द०)। ३. दालान । बरामदा। चौबंसा-संहा पुं० [सं०] एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में जो . . ४. घर के सामने का छायादार चबूतरा। ५. एक प्रकार एक मगरण और एक वगण होता है। जैसे,—नय धरु एका। की खली पालकी जिसमें परदे या किवाड़ नहीं हति । न भज अनेका। इसे शधियदना, चंडरसा और पायाकुलक चौपहला.! भी कहते हैं। पास -क्रि०वि० हिं० चौ (धार) पास+(=तरफ)] चौगला_हा चिौ +यगल-या प्रिय) 1 मिरजई.

  • चारों ओर। उ०- बेढ़ल सकल सखी चौपासा। प्रति बीन

फतुही, कुरती, अंगे इत्यादि में बगल के नीचे और कली के .: स्वास बहइ तसु नासा । -विद्यापति, पृ० ४८३ । ऊपर का भाग। दीपुरा-संक पुहि० चौ (=चार)+पुर (=चरस)+प्रा नवलाचारीपोरा जो शानों पर हो। (प्रत्य॰)] वह कुत्री जिसपर चार पुर या मोट एक साथ । चौवगला-कि० वि० चारों ओर । पारो तरफ। चल सके। वह जिसपर पार चरसे एक साथ चलते हो। चौवगली--संमा श्री० [हिं० चौ+० बगल बगलबंदी। होपेज-वि० [हिं० चौ (चार)+4 पेन (=पृष्ठ)] १. चार चौवच्चा----संशा पुं० [हिं० चहवच्चा] १.फुड । होज । छोटा गड्ढा ... पृष्ठनेवाला । २. एक ताव कागन में चार पृष्ठ होनेवाला जिसमें पानी रहता है। २.वह गड्ढा जिसमें धन गड़ा हो। . (पुस्तकों की छपाई प्रादि)। जैसे, किले के भीतर कई चौबच्चे भरे पड़े हैं। - यौ०-चौपेजी छपाई। चौवरदी;--संशा बी० [हिं० चौ (चार)+वदं (बैल)+ई पापया-संच पुं० [सं० चतुष्पदी] १. चार चरणों वाले एक छंद का . (प्रत्य०) ] चार बैलों की गाड़ी। .. नाम जिसके प्रत्येक चरण में १०,८ और १२ के विधाम से चौवरसी-संज्ञा सी० [हिं० ची+वरत-ई (प्रत्य०)] १.वह उत्सव ३० मात्राएं होती हैं और अंत में एक गुरु होता है। या प्रिया, यादि जो किसी घटना के चौथे बरस हो। २.यह - विशेप-इसके प्रारंभ में एक हिकल के उपरांत सब चौकल होने श्राद्ध आदि जो किसी के निमित्त उसके मरने के चौथे बरस हो। ' चाहिए और प्रत्येक चौकल में सम के उपरांत सम और विपम चौवरा-संज्ञा पुं० [हिं० चौ (चिह्नबार)+बांट (=हिस्सा)]फल के उपरांत विषम कल का प्रयोग होना चाहिए। साथ ही चारी की वह बंटाई जिसमें से जमींदार चतुर्याग लेता है । चरणों का अनुप्रास भी मिलना चाहिए। जैसे,-भ प्रकट चोदरिया@ --संशा झी० [हि बौवारी +इया (प्रत्य॰)] १० कृपाला, दीन देवाला, कौशल्या हितकारी। हपित महतारी, चौबारा'। उ०-लत रहली बाबा चौरिया पाद गए मुनि मन हारी अदभत रूप निहारी। लोचन अभिरामा अनहार हो ।-घरम०, ५०४ तनु धनश्यामा, निज प्रायुध भुजचारी। भूपन बनमाला, ... नयन विशाला, शोभा सिधु खरारी। चौबा-संशा 1 म चतुर्वेदी] [स्त्री० चीयाइन] १. ब्राह्मणों की २. चारपाई। बाट। एक जाति या शाखा । २. मयुरा का पंडा । दे० 'चो।