पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३८२

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चतुरई चतुर्जातक जो अपनी चातुरी से प्रेमिका के संयोग का साधन करे। इसके चतुरन-वि०१. चतुष्कोण (माणिक्य की एक विशेपता)।२.। दो भेद हैं--क्रियाचतुर और वचनचतुर । २. वह स्थान सर्वागीण को। जहाँ हाथी रहते हों । हाथीखाना । ३.नृत्य में एक प्रकार की यो०-चतुरल पांडित्य-सर्वतोमुखी ज्ञान या विद्वत्ता। चेष्टा । ४.वक्र गति । टेढ़ी चाल (को०)। ५.धूर्तता। चतुरह-संज्ञा पुं० [सं० चतुरहन्] १. वह याग जो चार दिनों में हो। . प्रवीणता । होशियारी (को०)। ६.गोल तकिया (को०)। २. चार दिन का समय या काल को। चतुरई-संवा श्री० [हिं० चतुराई] चतुरता । चतुराई। चतुरा'-संशा क्षी० [सं०] नत्य में धीरे-धीरे भौंह कंपाने की क्रिया। क्रि० प्र०--करना ।--दिखाना ।--सीखना । चतुरा--संक्षा पुं० [हिं० चतुर] [बी० चतुरी] १. चतुर । प्रवीण। मुहा०-चतुरई छोलना-चालाकी करना। धोखा देना । उ०- २. धूर्त । चालाक । जाहु चले गुन प्रकट सूर प्रभु कहाँ चतुरई छोलत हैं—सूर चतुराई-संज्ञा स्त्री० [सं० चतुर+पाई (प्रत्य॰)] १. होशियारी । (शब्द०)। चतुराई तौलना=चालाकी करना । उ०---बहु- निपुणता । दक्षता । २. धूर्तता । चालाकी । नायकी आजु में जानी कहा चतुरई तौलत हों।-सूर (शब्द०)। चतुरात्मा-संज्ञा पुं० [सं० चतुरात्मन् ] १. ईपवर । २. विष्ण। चतुरक--संहा पुं० [सं०] चतुर । चतुरानन—संज्ञा पुं० सं०] चार मुखवाले । ब्रह्मा । चतुरक्रम-संक्षा पुं० [सं०] एक प्रकार का ताल जिसमें दो दो गुरु, दो यौ०-चतुरानन का अस्त्र-ब्रह्मास्त्र । प्लुत और इनके बाद क गुरु होता है। यह ३२ अक्षरों चतुरापना-संज्ञा पुं० [हिं० चतुरा---पन (प्रत्य॰)] चतुराई । ता ह और इसका व्यवहार शृगार रस में होता है। होशियारी । उ०-फिर वात चले चतुरापन की चित चाव चतुरजाति--संज्ञा स्त्री॰ [सं० चतुर्जातक] सं० 'चतुर्जातक' । चढ्यो सुधि बार दई । रघुनाथ (शब्द०)। चतुरता-संक्षा स्त्री० [सं० चतुर+ता (प्रत्य॰)] चतुर का भाव । चतुराम्ल-संज्ञा पुं० [सं- चतुरम्ल ] दे॰ 'चतुरम्ल'। . चतुराई । प्रवीणता । होशियारी । चतुराश्रम-संपा पुं० [चतुर+याश्रम ] जीवन के चारों पाश्रम- चतुरथी-- वि० [सं० चतुर्थ] दे० 'चतुर्थ, । उ०---प्राकाश चतुरयी ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास। . तत्त बनाया ।-प्राण०, पृ० ३६ । चतुरिद्रिय-संभा पुं० [सं० चतुर+इन्द्रिय ] चार इंद्रियोंवाले जीव । चरतुनीक---संज्ञा पुं० [सं०] चतुरानन । ब्रह्मा । विशेष प्राचीन काल के भारतवासी मक्खी, भौरे, साँप आदि चतुरपना--संज्ञा पुं० [हिं० चतुर+पन] चतुराई । चतुरता चतुराई। की श्रवणेंद्रिय नहीं मानते थे; इसी से उन्हें चतुरिंद्रिय कहते चतुरबीज संचा पुं० [सं० चतुर्वीज] दे० 'चतु:ज' । थे।-(वैद्यक)। चतुरभुज -संज्ञा पुं० [सं० चतुभुज । दे० 'चतुभुज' । चतुराशो -संवा मी० [सं० चतुरशीति ] २० 'चौरासी' । उ०- चतुरमास -संघा पुं० [सं० चातुर्मास] दे० 'चातुर्मास' । चतुराशी के दुःख नहीं कछ बरने जाहीं।-सुदर ग्रं०, भा० चतुरमुखी --संशा पुं० [सं० चतुर्मुख ] दे० 'चतुर्मुख' । १, पृ०८। चतुरम्ल- संना पुं० [सं०] अमलवेत, इमली, जबीरी और कागजी । चतुरासीत वि० [सं० चतुरशीति ] दे० 'चौरासी' 1 उ० -- कला नौव, इन चार खटाइयों का समूह ।--(वैद्यक)। बहुत्तर करि कुसल प्रति निवद्ध जिय जानि । हेत आदि जानन चतुरशीति-वि० [सं०] चौरासी । निपुन चतुरासीत विग्यान ।-पृ० रा०, ११७३८ । चतुरवर -वि० चतुर लोगों में श्रेष्ठ । उ० कोइक दिन गुरु चतुरी-संधा [देश॰] पुराने ढंग की एक प्रकार की पतली नाव जो राम पं पढ़ी सु विद्या अप्प । चवदसु विद्या धतुरवर सीख प्रायः एक ही लकड़ी में खोदकर या और किसी प्रकार से लई पट लिप्प ।-पृ० रा०, १७२६ । बनाई जाती है। चतुरश्र-संशा पुं० [सं०] १. ब्रह्मसंतान नामक केतु । २. ज्योतिष में चौथी या पाठवीं राशि । ३. दे० 'चतुरस्र' (को०)। चतुरुपण-संशा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार सोंठ, मिर्च, पीपर और पिपरामूल, इन चार गरम पदार्थों का समूह । चतुरश्र-वि० जिसके चार कोने हो । चौकोर । चतुर्' वि० [सं० चतः चतुर | चार । चतुरसमा- संज्ञा पुं० [सं० चतुस्सम] दे० 'चतुस्सम' । उ०-मंगलमय व चतुर– संज्ञा पुं० चार की संख्या। निज निज भवन लोगन रचे बनाय । वीथी सींची चतुरसम विशेष-हिंदी में इसका प्रयोग केवल समस्त पदों ही में होता चौ चारु पुराय ।-तुलसी (शब्द॰) । है । जैसे-चतुरंगिणी, चतुरानन । चतुरस्त्र-संक्षा पुं० [सं०] एक प्रकार का तिताला ताल जिसमें कम से एक गुरु (गुरु की दो मात्राएँ), एवा लघु (लघु की एक चतुर्गति-संज्ञा पुं० [सं०] १. कछुमा । २. विष्णु । ३. ईश्वर । मात्रा ), एक प्लुत ( प्लुत की तीन मात्राएँ) होता है। चतुगव-सक्षा पु०स०] चार वला द्वारा जात इसका बोल यह है-थरिकुकु थाँ था धिगदाँ । घिधि धिमि चतुर्गुण--वि० [सं०] १. चौगुना । २. चार गुणोंवाला। धिधि गन थों थों डे। २. नृत्य में एक प्रकार का हस्तक। ३. चतुर्जातक---पंखा पुं० [मं०] वैद्यक के अनुसार इलायची (फल), ... चतुर्भुज क्षेत्र (को०)। ४. ज्योतिष में चौथी या आठवीं राशि दारचीनी (छाल ), तेजपत्ता (पत्ता), और नागकेसर (फून) (को०)। ५. ब्रह्मसंतोप नामक केतु (को०)। इन चार पदार्थों का समूह । चतुरंगिणी, चतराम चतुर्गति लघु (लघु की एक लुत ( प्लुत की