पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३१५

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घररना .. घरटी --संक्षा मो० [सं० धरट्टिका, प्रा० घरट्टिया] दे० 'घरट्टिका' । उ०--घरटी उड्या अन्न ज्यों के पीसा का पीस । --राम. .: . धर्म०, ६४ 1 घरट्र, घरट्टर संज्ञा पुं० [सं०] चक्की । जीता। घरट्टिका--संवा मौ० [सं०] चक्की । जाँता [को०] । = घरणी- संशत्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसके पास गृह या घर हो। २. दे० 'घरनी'। घरदारी-संथ श्री [हिं० घर+फा० दारी] घर का काम काज । .. गृहस्थी का व्यवस्था । घरदासी-संबा सी० [हिं०धर-न-संव्दासी] गृहिणी । भार्या । पत्नी। घरद्वार-संज्ञा पुं० [हिं० घर+सं० द्वार] १. रहने का स्थान । ..ठौर । ठिकाना । जैसे,—विना इनका घर द्वार जाने हम इनके - विषय में क्या कह सकते हैं । २. गृहस्वी । घर का आयोजन । - जसे, जब वह वाहर जाता है, तब उसे घर द्वार की कुछ भी . .सुध नहीं रहती। ३. निज की सारी संपत्ति । जैसे, हम - .... अपना घरद्वार वेचकर तुम्हारा रुपया चुका दंगे। परद्वारी'-संहा स्त्री० [हिं० घरद्वार+ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का कर जो पहले घर पीछे लिया जाता था। घरद्वारी-संज्ञा पुं० दे० 'घरवारी' । ". घरन--संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की पहाड़ी भेड़ जिसे जुबली भी कहते हैं। '.. घरनई:--संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'चन्नई। घरनाल-संवा बी० [हिं० घड़ा+नाली] एक प्रकार की पुरानी ' तोप । रहकला। . घरनाव'- संज्ञा पुं० [सं० घरनी प्राव (प्रत्य॰)] गृहिणीत्व । पत्नीख । घरनीपन । 'घरनाव--संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ा+नाव] दे॰ 'घन्नई। उ- नहिं नावक घरनाव, नहिं मलाह नहिं तूमरा ।-नट०, पृ. २. घर का पड़ोस । उ०-पार हुए धरप्रांतर अंतर में निरव- मान ।-अर्चना, पृ० ८० ॥ घरफुकना-वि० [हिं० घर-फूकना] घर कनेवाला । घर वर्वाद करनेवाला। घरफोड़ना-वि० [हिं० घर+फोड़ना ] घर में झगड़ा लगाने- वाला । घर के प्राणियों में विगाड़ करानेवाला । घरफोरन, घरफोरना-वि० [हिं०] [वि० सी० घरफोरनी] दे० ' 'घरफोड़ना। घरफोरी@-संशा लो० [हिं० घर+फोड़ना] परिवार में कलह फैलानेवाली। घर के प्राणियों में विगाड़ करानेवाली। उ०- (क) धरयो मोर घरफोरी नाऊँ । --तुलसी (शब्द॰) । (ख) पुनि अस कबहु कहसि घरफोरी 1 तब घरि जीभ कड़ावों तोरी। --मानस, २१४ । घरवंदो--संज्ञा स्त्री० हिं० घर+वंदी] चित्रकला में पहले छोटे छोटे चिह्नों से स्थान घेरकर अलग अलग पदार्थों को अकित करने के लिये स्थान नियत करना। घरवसा- पुं० [हिं० घर+वसना] [बी० घरवती] उपपति । यार 1 उ०-ए हो घरबसे! आजु कौन घर बसे हो । -धनानद (शब्द०)। घरबसी-संज्ञा बी० [हिं०घर+वसना रखेली स्त्री। उपपत्नी । सुरैतिन । उ०-तेरे घाले घर जात घरी औ न घर आज तु तो घरवसी उर बसी उरबसी सो।ग ग्रं०, पृ०४७ । घरवसी-वि० सी० १. घर बसानेवाली। घर की समृद्धि करने- वाली । भाग्यवती । २. (व्यंग्य) घर उजाड़नेवाली । सत्यानाश करनेवाली । उ०-ललित लाल निहारि महरि मन बिचारि डारि दे घरवसी लकुट वेगि कर ते । —तुलसी (शब्द०)। घरवार-संथा पुं० [हिं० घर+वार < सं० द्वार] [ वि० घरवारी] १. रहने का स्थान । ठौर ठिकाना। २. धर का जंजाल । गृहस्थी । जैसे,—वह घरवार छोड़कर साधु हो गया । ३. निज की सारी संपत्ति। जैसे,-घरवार बेचकर हमारा रुपया दो। घरवारी--संज्ञा पुं० [हिं० घर+बार बाल बच्चोंवाला । गृहस्प। कुटु वी। उ०--अब तो श्याम भये घरवारी ।-सूर (शब्द०)। घरवैसी-संघा सी० [हिं० घर+बैठना] 'घरवसी'। घरमा-संधा पुं० [सं० धर्म] १. घाम। धूप। २. स्वेद । 30- कहइत नाम पेमे भये भोर । पुलक कंग तनु घरमहि नीर।- विद्यापति, पृ०६३३ । घरमकर--संशा पुं० [सं० धर्मकर] सूर्य । घरयार-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परियार' । उ०-घरी बजी घरयार सुन बजिक कहत बजाइ । बहुरि न पहै यह हरि चरनन चित लाइ।-सं० सप्तक, पृ० १७४।। घर घरर-संज्ञा पुं० [अनु॰] वह शब्द जो किसी कड़ी वस्त को दूसरी कड़ी वस्तु पर रगड़ने से होता है। घिसने का शब्द : घररना'- क्रि० स० [मनुध्वन्धरर परर) परर घरर ध्वनि होना। घररना-कि०स०१. रगड़ना । घिसना । घुसना । २. परर घरर ध्वनि पैदा करना। परनि-संवा स्त्री० [हिं० दे० घरनी' 1 उ-देखि विवस वृपभानु .. .. घरनि वो हंसति हँसति तह पाई।-नंद० ग्रं॰, पृ० ३८४ । घरनी-संवा स्त्री० [सं० गहिणी, प्रा० घरणी] घरवाली । भार्या । . . गहिणी। उ०- (क) गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरंगी मेरी प्रभ सौं निपाद ह के बाद न बढ़ाइहीं। तुलसी - (शब्द॰) । (ख) तरनिहु मुनि घरनी होई जाई । —तुलसी (शब्द०)। (ग) विन घरनी घर भूत का डेरा |-- (कहा०)। घरनली-संवा बी० [हि घरनई+एली (प्रत्य॰)] दे० 'पन्नई। घरपत्ती-संशश बी० [हिं०घर+पसी भाग] वह चंदा जो घर . पीछे लगाया जाय । वेहरी । _ घरपरना-संज्ञा पुं० [सं० घर+परना (बनाना)] कच्ची मिट्टी का गोल पिडा जिसपर ठठेरे घरिया बनाते हैं। . घरपोई-वि० [हिं० पर+पोना] घर की पकाई हुई। उ०- ..." तुम वहीं जेई घरपोई।-जायसी पं० (गुप्त), पृ० १२३ । परप्रांतर-संबापुं० [ति घर+सं० प्रतिर] १. घर मोर पड़ोस।