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और सूत्र तथा भाष्य, देने ऐसे मिते रहते हैं कि एक ही लेखक पूरा व्याकरण, विशद रूप में, लिख सकता है। हिंदी-भाषा के लिए वह दिन सचमुच बड़े गैरव का होगा जब इसका व्याकरण 'अष्टाध्यायी’ और ‘महाभाष्य' के मिश्रित रूप में लिखा जायगा; पर वह दिन अभी बहुत दूर दिखाई देता है। यह कार्य हमारे लिए तो, अल्पज्ञता के कारण, दुस्तर है; पर इसका संपादन तभी संभव होगा जब संस्कृत के अद्वितीय वैयाकरण हिंदी को एक स्वतंत्र और उन्नत भाषा समझकर इसके व्याकरण का अनुशीलन करेगे । जब तक ऐसा नहीं हुआ है, तब तक इसी व्याकरण से इस विषय के अभाव की पूर्ति होने की आशा की जा सकती है। यहाँ यह कह देना भी आवश्यक जान पड़ता है कि इस पुस्तक में सभी जगह अँगरेजी व्याकरण का अनुकरण नहीं किया गया। इसमें यथा-संभव संस्कृत-प्रणाली का भी अनुसरण किया गया है और यथास्थान अँगरेजी-व्याकरण के कुछ दोष भी दिखाये गये हैं ।

हमारा विचार था कि इस पुस्तक में हम विशेष-कर 'कारकों' और 'कालों’ का विवेचन संस्कृत की शुद्ध प्रणाली के अनुसार करते; पर हिदी मे इन विषयों की रूढ़ि, अँगरेजी के समागम से, अभी तक इतनी प्रबल है कि हमें सहसा इस प्रकार का परिवर्तन करना उचित न जान पड़ा। हिंदी में व्याकरण का पठन-पाठन अभी बाल्यावस्था ही में है; इसलिए इस नई प्रणाली के कारण इस रूखे विषय के और भी रूखे हो जाने की आशंका थी। इसी कारण हमने ‘विभक्तियों और प्रख्यातो' के बदले ‘कारको' और ‘कालो’ का नामोल्लेख तथा विचार किया है। यदि आवश्यकता जान पडेगी तो ये विषय किसी अगले संस्करण में परिवत्तित कर दिये जावेगे। तब तक संभवत: विभक्तियों को मूल शब्द में मिलाकर लिखने के विषय में भी कुछ सर्व-सम्मत निश्चय हो जायगा।