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() पिता-वचन नहि मनत्यों ओहू॥ (राम॰)

कोटि जतन कोऊ करै परै न प्रकृतिहिं बीच।

() नल-बल जल ऊँचो चढ़ै अंत नीच का नीच॥ (सत॰)

जाको राखे साइयाँ () मारि न सकिहै कोय। (कबीर॰)

तौ लगि या मन-सदन महँ हरि आवहिँ केहि बाट।

निपट विकट जै लौं जुटे, खुलहि न कपट-कपाट॥ (स॰)

तब लगि मोहिं परखियहु भाई॥

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जब लगि आंवहुँ सीतहिं देखी॥ (राम॰)

१५—प्रचलित शब्दों का अपभ्रंश—

काज—काजा (राम॰)।

सपना—सापना (जगत्॰)।

एकत्र—एकत (सत॰)।

संस्कृत—संसकिरत (कबीर॰)।

१६—नाम-धातुओं की बहुतायत—

प्रमाण—प्रमानियत (सत॰)।

विरुद्ध—विरुद्धिये (कुण्ड॰)।

गवन—गवनहु (राम॰)।

अनुराग—अनुरागत (नीति॰)।

१७—अर्थ के अनुसार नामांतर—

मेघनाद—घननाद (राम॰)।

हिरण्याक्ष—हाटकलोचन (तत्रैव)।

कुंभज—घटज (तत्रैव)।

(आ) खड़ीबोली की काव्य-स्वतंत्रता।

१८—यद्यपि खड़ीबोली की कविता में शब्दों की इतनी तोड़-मरोड़ नहीं होती जितनी प्राचीन भाषा की कविता में होती है