११-आ, ई, ओ और औ की मात्राएँ व्यंजन के आगे लगाई जाती हैं; जैसे, का, की, को, कौ। इ, की मात्रा व्यंजन के पहले,ए और ऐ की मात्राएँ ऊपर और उ, ऊ, ऋ, की मात्राएँ नीचे लगाई जाती हैं; जैसे, कि, के, कै, कु, कू, कृ।
१२–अनुस्वार स्वर के ऊपर और विसर्ग स्वर के पीछे आता है;
जैसे, कं, किं, कं, काः ।
१३—उ और ऊ की मात्राएँ जब र् में मिलती हैं तब उनका आकार कुछ निराला हो जाता है, जैसे, रु, रू । र् के साथ ऋ को मात्रा का संयोग व्यंजनों के समान होता है, जैसे, र + ऋ= । ( देखो २५ वॉ अंक )।
१४–ऋ की मात्रा को छोड़कर और अं, अ. को लेकर व्यंजनों के साथ सव स्वरों के मिलाप को बारहखड़ी * कहते हैं। स्वर अथवा स्वरांत व्यंजन अक्षर कहलाते हैं । क् की बारहखड़ी नीचे दी जाती है-
क, का, कि, की, कु, कू, के, कै, को, कौ, कं, कः ।
१५–व्यंजन दो प्रकार से लिखे जाते हैं ( १ ) खड़ी पाई समेत,
(२) विना खडी पाई के। ड, छ, ट, ठ, ड, ढ, द, र को छोड़कर शेष व्यंजन पहले प्रकार के हैं। सब वणों के सिरे पर एक एक आड़ी रेखा रहती है जो ध, झ और भ में कुछ तोड़ दी जाती है।
१६–नीचे लिखे वणों के दो दो रूप पाये जाते हैं-
इअ और अ; झ और झ; ण और ण; च और क्ष; ल और त्र; ज्ञ और ज्ञ ।
१७–देवनागरी लिपि में वणों का उच्चारण और नाम तुल्य होने के कारण, जब कभी उनका नाम लेने का काम पड़ता है; तब अक्षर के आगे ‘कार' जोड़कर उसका नाम सूचित करते हैं, जैसे
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- यह शब्द द्वादशाक्षरी का अपभ्रंश है।