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६४४—संकेतवाचक समुच्चय-बोधक बहुधा संभावनार्थ और संकेतार्थ कालों में आते हैं; जैसे, जो मैं न आऊँ तो तुम चले जाना। यदि समय पर पानी बरसता तो फसल नष्ट न होती।

६४५—'चाहे-चाहे' संभाव्य भविष्यत्-काल के साथ और 'मानो' बहुधा संभाव्य-वर्त्तमान के साथ आता है; जैसे, आप चाहे दरबार में रहे, चाहे मनमाना खर्च लेकर तीर्थ-यात्रा को जावें; वहाॅ अचानक ऐसा शब्द हुआ मानो बादल गरजते हों

६४६—जब न-न का अर्थ संकेतवाचक होता है, तब वह सामान्य सकेतार्थ अथवा भविष्यत्-काल के साथ आता है, जैसे, न आप यह बात कहते, न मैं आपसे अप्रसन्न होता, ने मुझे समय मिलेगा न मैं आपसे मिलूँगा।

६४७—जब 'कि' का अर्थ कालवाचक होता है तब भूतकाल की घटना सूचित करने में इसके पूर्व बहुधा पूर्ण-भूतकाल आता है, जैसे, वे थोड़ी ही दूर गये थे कि एक महाशय मिले। बात पूरी भी न होने पाई थी कि वह बोल उठा।

(अ) इस अर्थ में कभी-कभी इसके पूर्व क्रियार्थक सज्ञा के साथ 'था' का प्रयोग होता है, जैसे, उसका बोलना था कि लोगों ने उसे पकड लिया। सिपाही का आना था कि सब लोग भाग गये।

६४८—यद्यपि—तथापि के बदले कभी-कभी "कितना" वा "कैसा" के साथ "ही" का प्रयोग करके क्रिया के पूर्व "क्यों न" क्रिया-विशेषण लाते हैं और क्रिया को संभावनार्थ के किसी एक काल में रखते हैं, जैसे, कोई कितना ही मूर्ख क्यों न हो, विद्याभ्यास करने से उसमें कुछ बुद्धि आ ही जाती है; लड़के कैसे ही चतुर क्यों न हों, पर माता-पिता उन्हें शिक्षा देते रहते हैं।

६४६—जब वाक्य में दो शब्द-भेद संयोजक या विभाजक समुच्चय-बोधकों के द्वारा जोड़े जाते हैं तब ये अव्यय इन दो शब्दों