(८) संबोधन-कारक।
५५८—इस कारक का प्रयोग किसी को चिताने अथवा पुकारने में होता है, जैसे, भाई, तुम कहाँ गये थे? मित्रो, करो हमारी शीघ्र सहाय (सर॰)।
५५९—संबोधन-कारक के साथ (आगे या पीछे) बहुधा कोई-एक विस्मयादि-बोधक आता है जो भूल से इस कारक की विभक्ति मान लिया जाता है; जैसे, तजो, रे मन, हरि-विमुखन को संग(सुर॰), हे प्रभु, रक्षा करो हमारी, भैया हो, यहाँ तो आओ।
(क) कविता में कवि लोग बहुधा अपने नाम का प्रयोग करते हैं जिसे छाप कहते हैं और जिसका अर्थ कभी-कभी संबोधन-कारक का होता है, जैसे, रहिमन, निज मन की व्यथा। सूरदास, स्वामी करुणामय। यह शब्द अपने अर्थ के अनुसार और-और कारकों में भी आता है, जैसे, कहि गिरिधर कविराय, कलिकाल तुलसी से शठहि हठि राम सन्मुख करत को?
तीसरा अध्याय।
समानाधिकरण शब्द।
५६०—जो शब्द या वाक्यांश किसी समानार्थी शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिए वाक्य में आता है उसे उस शब्द का समानाधि- करण कहते हैं; जैसे, दशरथ के पुत्र, राम वन को गये, पिता-पुत्र दोनों वहाँ बैठे हैं, भूले हुओ को पथ दिखाना, यह हमारा कार्य था (भारत॰)।
इन वाक्य में राम, दोनों और यह क्रमशः पुत्र, पिता-पुत्र और पढना के समानाधिकरण शब्द हैं।