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(च) आधाराधेयभाव—नगर के लोग, ब्राह्मणों का पुरा, दूध का कटोरा, कटोरे का दूध, नहर का पानी, पानी की नहर।

(छ) सेव्य-सेवक-भाव—राजा की सेना, ईश्वर का भक्त, गाँव का जोगी, आन गाँव का सिद्ध।

(ज) गुणगुणीभाव—मनुष्य की बडाई, आम की खटाई, नौकर का विश्वास, भरोसे का नौकर, बड़ाई का काम।

(झ) बाह्य-वाहकभाव—घोडे की गाडी, गाड़ी का घोड़ा, कोल्हू का बैल, बैल को छकडा, गधे का बोझ, सवारी का ऊँट।

(ञ) नाता—राजा का भाई, लड़के का फूफा, स्त्री का पति, मेरा काका, वह तुम्हारा कौन है?

(ट) प्रयेाजन—बैठने का कोठा, पीने का पानी, नहाने की जगह, तेल की बासन, दिये की बत्ती, खेती का बैल।

(ठ) मोल वा माल—पैसे का गुड, गुड का पैसा, सात सेर का चावल, रुपये के सात सेर चावल, रुपये की लकड़ी, लकड़ी का रुपया।

(ड) परिमाण—दो हाथ की लाठी, खेती एक हर की (गंगा॰), दस बीघे का खेत, कम उँचाई की दीवाल, चार सेर की नाप।

[सू॰—दस सेर आटा, एक तोला सेना, एक गज कपड़ा, आदि वाक्यों में कोई-कोई वैयाकरण आटा, सोना, कपड़ा, आदि शब्दों को संबध कारक में समझकर दूसरे शब्दों के साथ उनका परिमाण का संबंध मानते हैं, जैसे, आटे के दस सेर, सोने का एक तोला, कपड़े का एक गज। परंतु ये सब शब्द किसी और कारक में भी आ सकते हैं, जैसे, इस सेर आटे में दो सेर घी मिलाओ। यहाँ "आटा" शब्द अधिकरण-कारक और घी शब्द अप्रत्यय कर्म-कारक है, इसलिए इन्हें केवल संबंध-कारक मानना भूल है। ये शब्दयथार्ध में समानाधिकरण के उदाहरण हैं (थं॰—१४४)।]