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५३३—संबंध के अर्थ में कोई-कोई लेखक सप्रदान-कारक का प्रयोग करते हैं, जैसे, राजा को नौ पुत्र थे (मुद्रा॰), जमदग्नि को परशुराम हुए (सत्य॰)। इस प्रकार की रचना बहुधी काशी और बिहार के लेखक करते हैं और भारतेंदु जी इसके प्रवर्त्तक जान पड़ते हैं। मराठी में इस रचना की बहुत प्रचार है, जैसे, त्याला दोन भाऊ आहेत। हिंदी में यह रचना इसलिए अशुद्ध है कि इसका प्रयेाग न तो पुरानी भाषा में पाया जाता है और न आधुनिक शिष्ट लेखक ही इसका अनुमोदन करते हैं। इस रचना के बदले हिंदी में स्वतंत्र संबंध-कारक आता है, जैसे,

एक बार भूपति मन माहीं। भई ग्लानि मोरे सुत नाहीं। (राम॰)

मधुकर शाह नरेश के इतने भये कुमार। ( कवि॰)।

चाहे साहूकार के संतान हो चाहे न हो। (शकु॰)।

इस अंतर में उनके एक लड़की और एक लड़का भी हो गया (गुटका॰), इस समय इनके केवल एक कन्या है (हि॰ को॰)।

५३४—नीचे लिखे शब्दों के योग से बहुधा संप्रदान-कारक आता है—

(क) लगना, रुचना, मिलना, दिखना, भासना, आना, पड़ना, हेना, आदि अकर्मक क्रियाएँ, जैसे, क्या तुमको बुरा लगा, मुझे खटाई नहीं भाती, हमे ऐसा दिखता है, राजा को संकट पडा, तुझको क्या हुआ है, मोंहि न बहुत प्रपंच सुहाहीं (राम॰)।

(ख) प्रणाम, नमस्कार, धन्य, धन्यवाद, बधाई, धिक्कार, आदि सज्ञाएँ , जैसे, गुरु को प्रयास है, जगदीश्वर को धन्य है, इस कृपा के लिए आपको धन्यवाद है, तुलसी, ऐसे पतित को बार बार धिक्कार, इत्यादि। संस्कृत उदा॰—श्रीगणेशाय नम।