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अर्द्ध-तत्सम उन संस्कृत शब्दों को कहते हैं जो प्राकृत-भाषा बोलनेवालों के उच्चारण से बिगड़ते बिगड़ते कुछ और ही रूप के हो गये हैं, जैसे, बच्छ, अग्यां, मुँह, बंस, इत्यादि।
बहुत से शब्द तीनों रूपों में मिलते हैं; परंतु कई शब्दों के सब रूप नहीं पाये जाते। हिन्दी के क्रियाशब्द प्रायः सब के सब तद्भव हैं। यही अवस्था सर्वनामों की है। बहुत से संज्ञा शब्द तत्सम वा तद्भव हैं और कुछ अर्द्ध-तत्सम हो गये हैं।
तत्सम और तद्भव शब्दों में रूप की भिन्नता के साथ साथ बहुधा अर्थ की भिन्नता भी होती है। तत्सम शब्द प्रायः सामान्य अर्थ में आता है, और तद्भव शब्द विशेष अर्थ में; जैसे "स्थान" सामान्य नाम है, पर "थाना" एक विशेष स्थान का नाम है। कभी कभी तत्सम शब्द से गुरुता का अर्थ निकलता है और तद्भव से लघुता का, जैसे "देखना" साधारण लोगों के लिए आता है, पर "दर्शन" किसी बड़े आदमी या देवता के लिए। कभी कभी तत्सम के दो अर्थों में से तद्भव से केवल एक ही अर्थ सूचित होता है, जैसे "वंश" का अर्थ "कुटुंब" भी है और "बॉस" भी है; पर तद्भव "बॉस" से केवल एकही अर्थ निकलता है।
यहाँ तत्सम, तद्भव और अर्द्ध-तत्सम शब्दों के कुछ उदाहरण दिये जाते हैं—
तत्सम अर्द्धतत्सम तद्भव आज्ञा अग्यां आन राजा ॰ राय वत्स बच्छ बच्चा अग्नि अगिन आग स्वामी ॰ साई कर्ण ॰ कान