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इस वाक्य मे डरना क्रिया के योग से "बंदर" शब्द अपादान-कारक में आया है।

(ग) शब्दों को, उनके अर्थ और संबंध की प्रधानता के अनुसार, वाक्य में यथा-स्थान रखना क्रम कहलाता है।

[सू॰—इस पुस्तक में अन्वय, अधिकार और क्रम के नियम अलग-अलग लिखने का पूरा प्रयत्न नहीं किया गया है; क्योंकि ऐसा करने से प्रत्येक शब्द-भेद के विषय में कई बार विचार करना पड़ता और इन विषयों के अलग-अलग विभाग करने में कठिनाई होती हैं। इसलिए अधिकांश शब्द-भेदों की वाक्य-विन्यास-सबंधी प्रायः सभी बातें एक शब्द-भेद के साथ एक ही स्थान में लिखी गई है।]

५०८—वाक्य मे शब्दों का परस्पर संबंध दो रीतियों से बतलाया जा सकता है—(१) शब्दों को उनके अर्थ और प्रयोग के अनुसार मिलाकर वाक्य बनाने से और (२) वाक्य के अवयवों को उनके अर्थ और प्रयेाग के अनुसार अलग-अलग करने से। पहली रीति को वाक्य-रचना और दूसरी रीति को वाक्य-पृथक्करण कहते हैं। यह पिछली रीति हिंदी मे अँगरेजी से आई है; और वाक्य के अर्थ-बोध मे इससे बहुत सहायता मिलती है। (इस पुस्तक में दोनों रीतियों का वर्णन किया जायगा।)

५०९—वाक्य में मुख्य दो शब्द होते हैं—(१) उद्देश्य और (२) विधेय। वाक्य मे जिस वस्तु के विषय में विधान किया जाता है उसे सूचित करनेवाले शब्द को उद्देश्य कहते हैं; और उद्देश्य के विषय मे विधान करनेवाला शब्द विधेय कहलाता है। उदा॰—"पानी गिरा"। इस वाक्य में "पानी" शब्द उद्देश्य और "गिरा" विधेय है। जब वाक्य में दो ही शब्द रहते हैं तब उद्देश्य में संज्ञा अथवा सर्वनाम और विधेय में क्रिया आती है। उद्देश्य की संज्ञा बहुधा कर्त्ता-कारक में रहती है और क्रिया किसी एक काल, पुरुष,