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जाता है, जो दक्षिण के रहनेवाले थे और अनुमान से बारहवीं सदी में हुए हैं। उत्तर भारत में यह धर्म रामानंद स्वामी ने 'फैलाया, जो इस संप्रदाय के चौथे प्रचारक थे। इनका समय सन् १४०० ईसवी के लगभग मानी जाता है। इनकी लिखी कुछ कविता सिक्खों के आदि-ग्रंथ में मिलती है और इनके रचे हुए भजन पूर्व में मिथिला तक प्रचलित हैं। रामानंद के चेलों में कबीर थे, जिनका संमय १५१२ ईसवी के लगभग है। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें "साखी", "शब्द", “रेख्ता", और "बीजक" अधिक प्रसिद्ध हैं। उनकी भाषा में ब्रज-भाषा और हिंदी के उस रूपांतर, का मेल है जिसे लल्लूजी लाल ने ( सन् १८०३ ई० में ) “खड़ी बोली” नाम दिया है। कबीर ने जो कुछ लिखा है वह धर्म-सुधारक की दृष्टि से लिखा है, लेखक की दृष्टि से नहीं । इसलिए उनकी भाषा वहुधा साधारण और सहज है। लगभग इसी समय मीराबाई हुई जिन्होंने कृष्ण की भक्ति में बहुतसी कविताएं कीं । इनकी भाषा कहीं मेवाड़ी और कहीं व्रज-भाषा है। इन्होंने “राग-गोविंद,” “गीत- गोविंद की टीका" आदि ग्रंथ लिखे। सन् १४६९ ई० से १५३८ तक वावा नानक का समय हैं। ये नानक-पंथी संप्रदाय के प्रचारक और “आदि-ग्रंथ” के लेखक हैं। इस ग्रंथ की भाषा पुरानी पंजाबी होने के बदले पुरानी हिंदी है। शेरशाह ( १५४० ) के आश्रय में मलिक मुहम्मद जायसी ने “पद्मावत” लिखी, जिसमें सुल्तान अलाउद्दीन के चित्तौर का किला लेने पर वहाँ के राजा रतनसेन की रानी पद्मा-

     छ मनका फेरत जुग गयी गयी न मन का फेरे ।
     कर को मनका छाँडि दे मन का मनका फैर ॥
     नव द्वारे को पींजरा तामें पंछी पौन ।
     रहिवे को आचर्ज है गये अचभा कौन ।।।