३७८—जिन भूतकालिक कृदंतों में "आ" के पुर्व "य" का आगम होता है उसमे "ए" और "ई" प्रत्ययों के पहले विकल्प से "य" का लोप हो जाता है; जैसे, लाये वो लाए; लायी वा लाई। यदि "य" प्रत्यय के पहले "इ" हो तो "य" का लोप होकर "इ" प्रत्यय पूर्व "इ" में संधि के अनुसार मिल जाता है, जैसे, लियो—ली, दिया—दी, किया—की, सिया—सी, पिया—पी, जिया—जी, "गया" का भी स्त्रीलिग "गई" होता है।]
[सू॰— कोई कोई लेखक ईकारांत रूपो के लियी, लिई, गयी, जियो, जिई आदि लिखते हैं, पर ये रूप सर्व-सम्मत नहीं हैं। बहुवचन में थे (लाये) और स्त्रीलिंग में ई (लाई) का प्रयोग अधिक शिष्ट माना जाता है।]
२—कृदंत अव्यय।
३७९—कृदंत अव्यय चार प्रकार के हैं—
(१) पूर्वकालिक कृदंत (२) तात्कालिक कृदंत (३) अपूर्ण क्रियाद्योतक (४) पूर्ण क्रियाद्योतक।
३८०—पूर्वकालिक कृदंत अव्यय धातु के रूप में रहता है। अथवा धातु के अंत मे "के", "कर" वा "करके" जोड़ने से बनता है; जैसे,
क्रिया | धातु | पुर्वकालिक कृदंत |
जाना | जा | जाके, जाकर, जाकरके |
खाना | खा | खाके, खाकर, खाकरके |
दौड़ना | दौड़ | दौड़के, दौड़कर, दौड़करके |
[सू॰—"करना" क्रिया के धातु में केवल "के" जेढा जाता है; जैसे, करके। "आना" क्रिया के, नियमित रूप के सिवा, कभी-कभी दो रूप और