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भयउ न अहइ न होनिहुॅ "हारा" (राम॰)। कोई कोई आधुनिक लेखक "वाला" के मूल शब्द से अलग लिखते हैं।

"वाला" के केई कोई वैयाकरण संस्कृत के "वत्" वा "वल" से और कोई कोई "पाल" से व्युत्पन्न हुआ मानते हैं; और "हारा" को संस्कृत के "कार" प्रत्यय से निकला हुआ समझते है।]

३७४—वर्तमानकालिक कृदंत धातु के अंत में "ता" लगाने से बनता है, जैसे, चलता, बोलता, इत्यादि। इसका प्रयोग बहुधा विशेषण के समान होता है और इसका रूप आकारांत विशेषण के समान बदलता है, जैसे, बहता पानी, चलती चक्की, जीते कीड़े, इत्यादि। कभी-कभी इसका प्रयोग संज्ञा के समान होता है और तब इसकी कारक-रचना आकारांत पुल्लिंग संज्ञा के समान होती है, जैसे, मरता क्या न करता। डूबते को तिनके का सहारा बस है। भारतों के आगे, भागतों के पीछे।

३७५—भूतकालिक कृदंत धातु के अंत में आ जाड़ने से बनता है। इसकी रचना नीचे लिखे नियमो के अनुसार होती है—

(१) अकारांत धातु के अंत्य "अ" के स्थान में "आ" कर देते हैं, जैसे,

बोलना—बोला पहचानना—पहचाना
डरना—डरा मारना—मारा
समझना—समझा खींचना—खींचा

(२) धातु के अंत में, आ ए वा ओ हो तो धातु के अंत में "य" कर देते हैं, जैसे,

लाना—लाया बोना—बोया
कहलाना—कहलाया डुबोना—डुवोया
खेना—खेया सेना—सेया

(अ) यदि धातु के अंत में ई हो ते उसे ह्रस्व कर देते हैं, जैसे,

पीना—पिया जीना—जिया सीना—सिया।