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पाँचवाँ अध्याय।

विशेषण।

३३६—हिंदी मे आकारांत विशेषणों को छोड़ दूसरे विशेषणों में कोई विकार नहीं होता; परंतु सर्व विशेषणों का प्रयोग संज्ञाओं के समान होता है, इसलिए यह कह सकते हैं कि विशेषणों में बहुत परोक्ष रूप से लिंग, वचन और कारक होते हैँ। इस प्रकार के विशेषणों का विकार संज्ञाओं के समान उनके "अंत" के अनुसार होता है।

विशेषणो के मुख्य तीन भेद किये गये हैं—सार्वनामिक, गुणवाचक और संख्यावाचक। इनके रूपांतरों का विचार आगे इसी क्रम से होगा।

३३७—सार्वनामिक विशेषणों के दो भेद हैं—मूल और यौगिक। "आप" "क्या" और "कुछ" को छोड़कर शेष मूल सार्वनामिक विशेषणो के पश्चात् विभक्त्यंत वा संबंध-सूचकांत संज्ञा आने पर उनके दानों वचनों में विकृत रूप आता है; जैसे, "मुझ दीन को" "तुझ मूर्ख से" "हम ब्राह्मणों का धर्म," "किस देश में," "उस गॉव तक" "किसी वृक्ष की छाल," "उन पेड़ों पर", इत्यादि।

(अ) "शिवशंभु के चिट्ठे" मे "कौन" शब्द अविकृत रूप में आया है, जैसे, कौन बात में तुम उनसे बढ़कर हो?" यह प्रयोग अनुकरणीय नहीं है।
(आ) "कोई" शब्द के विकृत रूप की द्विरुक्ति से बहुवचन का बोध होता है; पर उसके साथ बहुधा एकवचन संज्ञा आती है; जैसे, किसी किसी तपस्वी ने मुझे पहचान भी लिया है।" (शकु॰)। "उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो किसी-किसी विशेष प्रकार की राज्यपद्धति का होना बिलकुल ही पसंद नहीं