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विशेषण संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता है-इस उक्ति का अर्थ यह हैं। कि विशेषण रहित संज्ञा से जितनी वस्तुओं का बोध होता है उनकी संख्या विशेषण के योग से कम हो जाती है । "घोडा" शब्द से जितने प्राणियों का बोध होता है उतने प्राणियों का बोध "काला घोड़ा", शब्दों से नहीं होता । “धोडा।” शब्द जितना व्यापक है उतना “काला घोडा" शब्द नहीं है। "घोडा" शब्द की व्याप्ति ( विस्तार ) “काला” शब्द से मर्यादित ( संकुचित) होती है; अर्थात् "घोडा" शब्द अधिक प्राणियों का बोधक है औ"काला घोड़ा” शब्द उससे कम प्राणियों का बोधक है।

“हिंदी-बाल-बोध-व्याकरण" में विशेषण का यह लक्षण दिया हुआ है---"संज्ञावाचक शब्द के गुणों को जतानेवाले शब्द को गुणवाचक शब्द कहते है।" इस परिभाषा में अध्याप्ति दोष है; क्योंकि कोई कोई विशेषण केवल संख्या और कोई कोई केवल दशा प्रगट करते हैं। फिर "गुण" शब्द से इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष भी आ सकता है; क्योंकि भाववाचक संज्ञा भी “गुण” जतानेवाली है। इसके सिवा इस लक्षण में "संज्ञा" के लिए व्यर्थ ही “संज्ञा-वाचक शब्द” और “विशेषण” वा “गुणवाचक" के लिए "गुणवाचकशब्द” लाया गया है ।]

१४४-व्यक्तिवाचक संज्ञा के साथ जो विशेषण आता है वह उस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित नहीं करता, जैसे, पतिव्रता सीता, प्रतापी भोज, दयालु ईश्वर, इत्यादि । इन उदाहरणों में विशेषण संज्ञा के अर्थ को केवल स्पष्ट करते हैं। "पतिव्रता सीता" वही व्यक्ति है जो 'सीता' है । इसी प्रकार "भोज" और "प्रतापी भोज" एकही व्यक्ति के नाम हैं। किसी शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिये जो शब्द आते हैं वे समानाधिकरण कहते हैं (अं०-५६१) । ऊपर के वाक्यों में “पतिव्रता," "प्रतापी” और “दयालु" समानाधिकरण विशेषण हैं।

१४५--जातिवाचक संज्ञा के साथ उसका साधारण धर्म सुचित करनेवाला विशेषण समानाधिकरण होता है; जैसे, मूक पशु, अवोध बच्चा, काला कौआ, ठंढी बर्फ, इत्यादि । इन उदाहरणो में विशेषणों के कारण संज्ञा की व्यापकता कम नहीं होती ।