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"ह०----ते। हम एक नियम पर विकेगे ।" "ध०----वह कौन ?" ( सत्य० )। “इसमे पाप कौन है और पुण्य कौन है ।" ( गुटका० ) । “यह कौन है जो मेरे अंचल के नहीं छोड़ता ।" (शकु०) । इसी अर्थ में "कैन" के साथ बहुधा "सा" प्रत्यय लगाया जाता है, जैसे, “मेरे ध्यान में नहीं आता कि महारानी शकुंतला कौनसी है ।" (शकु०)। तुम्हारा घर कैानसा है ?"

अ ) तिरस्कार के लिए; जैसे, "रोकनेवाली तुम कैान हो !" (शकु०) । "कैान जाने ।" "स्वर्ग कौन कहे, आपने अपने सत्यवल से ब्रह्म-पद पाया ।" ( सत्य० ) ।

( इ ) आश्चर्य अथवा दुःख मे; जैसे, "इसमे क्रोध की बात कैनसी है !"अरे । हमारी बात को यह उत्तर कैन देता है ?" (सत्य०)। “अरे ! आज मुझे किसने लूट लिया ।" ( तथा ) ।

( ई ) "कौन" कभी कभी क्रियाविशेषण होता है; जैसे, “आपको सत्संग कैन दुर्लभ हैं !" (सत्य॰) । ( उ ) वस्तुओं की भिन्नता, असंख्यता और तत्संबंधी आश्चर्य दिखाने के लिए "कौन" की द्विरुक्ति होती है; जैसे, “सभा में कौन कैान आये थे ?" मैं किस किसको बुलाऊँ।" "तूने पुण्यकर्म कौन कैनसे किये हैं ?" ( गुटका० ) ।

१३८-"क्या" नीचे लिखे अर्थों में आता है--

( अ ) किसी वस्तु का लक्षण जानने के लिए; जैसे, "मनुष्य क्या हैं ?" "आत्मा क्या है ?" “धर्म क्या है ?" इसी अर्थ में कौन का रूप “किसे" या “किसको" "कहना"क्रिया के साथ आता है, जैसे, “नदी किसे कहते हैं ?"