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और प्रयोग का विचार करने में कहीं कहीं उनके रूपांतरों का (जो दूसरे प्रकरण का विषय है।) उल्लेख करना आवश्यक होगा।]

११७—मैं—उ° पु° (एकवचन)।

(अ) जब वक्ता या लेखक केवल अपनेही संबंध में कुछ विधान करता है तब वह इस सर्वनाम का प्रयोग करता है। जैसे भाषा-बद्ध करब मैं सोई। (राम°)। जो मैं ही कृतकार्य नहीं तो फिर और कौन हो सकता है? (गुटका)। "यह थैली मुझे मिली है।"

(आ) अपने से बड़े लोगों के साथ बोलने में अथवा देवता से प्रार्थना करने में; जैसे, "सारथी—अब मैंने भी तपोवन के चिन्ह देखे"। (शकु°)। "ह°-पित, मैं सावधान हूँ।" (सत्य°)।

(इ) स्त्री अपने लिए बहुधा "मैं" का ही प्रयोग करती है, जैसे, शकुंतला—मैं सच्ची क्या कहूँ। (शकु°)। रा°—अरी! आज मैंने ऐसे बुरे बुरे सपने देखे हैं कि जब से सोके उठी हूँ। कलेजा काँप रहा है। (सत्य°)। (अं°-११८ ऊ)।

११८—हम—उ° पु° (बहुवचन)।

इस बहुवचन का अर्थ संज्ञा के बहुवचन से भिन्न है। 'लड़के' शब्द एक से अधिक लड़कों का सूचक है, परंतु 'हम' शब्द एक से अधिक मैं (बोलनेवालों) का सूचक नहीं है, क्योंकि एक-साथ गाने या प्रार्थना करने के सिवा (अथवा सबकी ओर से लिखे हुए लेख में हस्ताक्षर करने के सिवा) एक से अधिक लोग मिलकर प्रायः कभी नहीं बोल सकते। ऐसी अवस्था में "हम" का ठीक अर्थ यही है कि वक्ता अपने साथियों की ओर से प्रतिनिधि होकर अपने तथा अपने साथियों के विचार एक-साथ प्रकट करता है।

(अ) संपादक और ग्रंथकार लोग अपने लिए, बहुधा उत्तमपुरुष