कबजाति नशेमें चूरकर डाचते थे। फिर पुरोहित देवताके ! डालते। लोगों में प्रवाद था-वतिको पांखसे निकट शस्य, पुवकन्या एवं गवादि पालित पशु- जितना जल पड़ेगा, पूधिवीपर मुष्टिका वेग मी पक्षीके मङ्गल और सर्पव्याधादिके कवलसे उद्दार उतना ही बढ़ेगा। चेवाकेनेडी नामक स्थानपर होनेको प्रार्थना करते। दर्शक भी उस समय अपने- वलिको खाँच अर्धमत्त कन्ध चीत्कार करते करते अपने अभीष्टको सिद्धिके लिये देवताको मनाते थे। अस्थिसे मांस छोडा शस्यमें मिला देते। इससे पुरोहित साधारणके मध्य इतिहास सुना वलि सम्भवतः शस्थमें कीडा संगता न था। मार्जा प्रान्तमें चढ़ानेको पावश्यकता देखा देते। फिर पुरोहित । (दौद और पटनेके बीच) वलि चढ़नेके दिन कन्ध 'और वलिपात्रके मध्य तर्क उठता था। पुरोहित | हाथमें धातुनिर्मित बड़े बड़े वलय पहनते। उन्हीं वलिसे कहते,-'एक व्यक्ति मारनेसे यदि इतने ! वलयोंसे सब लोग वलिके मस्तक पर आघात लगाते लोगों-नहीं नहीं-समस्त देशको उपकार पहुंचे, । थे। उससे भो मृत्व न पानपर वंशखण्डसे खास- तो वह मारा जानेवाला क्या अनुयोग करे! फिर रोक वलिको मार डालते थे। पोछे प्रत्येक थोड़ा इसी लिये तुम्हें खरीद भी लाये हैं।' वलि थोड़ा मांस ले अपने अपने क्षेत्रमें वा नदो किनारे उत्तर देता था, 'मुझे छलसे लोग ले आये हैं। खंटे पर लटकाते। अवशिष्ट अंश भूमिमें माड़ा मुझसे दास बनानेकी बात कही गयी है। मैंने जाता। फिर प्रति वत्सर वलिके पात्रका थाह स्वयं आत्मविक्रय नहीं किया, दसरने ममे कैसे होता था। खरीद लिया!-इत्यादि। शेष पर पुरोहित उसे साधारणतः कन्धों के नियमानुसार वलिका मांस किसी प्रकार समझा-बुझा देते थे। उसके पीछे गाड़नेसे क्षेत्रका दोष नष्ट होता है। ताराके उपा- पुरोहित किसी प्रधानके साथ वृक्षकी एक हरी सक किसी ग्राममें भेरिया उत्सव होनेका संवाद शाखा काट मध्यभाग पर्यन्त फाड़ते और चिरे हुये सुन ५०० कोस दूर रहते भो डाक लगा वलिका दोनों किनारे वलिके गले में डाल रस्मोसे कसकर मांस अपने ग्राम पहुंचाते थे। वलि चढ़नेके दिन बांधते। अन्सको स्वयं पुरोहित कुठारसे उसका ही ग्राममें मांस पा जानेसे विशेष उपकार माना कण्ठ काट डालते थे। कण्ठ कटनेसे पहले सब जाता। मिलकर वलिसे कहते-देवताके प्रीत्यर्थ जयपुर नामक स्थानमें भी पहले मानिकसोरा हम अर्थ लगा तुम्हें खरीद लाये हैं। अतएव तुम्हें नामक युद्ध-देवताको वलि चढ़ता था। कडी मारनेसे हमको पाप नहीं पड़ता। इसके पीछे लकड़ीका ६ फौट चा खटा गाड़ पास हो एक दर्शक मस्तक एवं उदर व्यतीत शरीरके प्रत्येक अप्रशस्त नाला बनाते। वलिका मस्तक मुंडाया भागका अस्थि-मांस छोड़ा पवशिष्टांश दूसरे दिन जाता न था। लम्बे लम्बे बाल खटेसे इस प्रकार जला देते। चिता पर एक मेषका वलि चढ़ाते | बांधते, जिससे मुख कटते हो निचमख उसी थे। चिताका भस्म समस्त क्षेत्रपर छोड़ा जाता। नालेमें जा गिरे। फिर वलिके दक्षिय पाव खडे हो उससे धान्यागार और गृहका मध्यभाग स्लोपते- पुरोहित युद्धके जय-लाभ और राजा तथा कर्मचारी- पोतते। वलिके पिता या संग्रहकारको एक सांड गणके अत्याचार-निवारणको प्रार्थना करते थे। एक उपहार मिलता था। फिर दूसरे सांडको मार सब एक प्रार्थना शेष होते एक एक पाघात लगावे, पहले सोगं महा पानन्दसे खाते। भोजके पोछे उत्सव ही पाघातमें मुण्ड काट न डालते। प्रार्थना शेष शेष होता था। एक वत्सर बाद उसी दिन तारा होते भी वखि मरता न था। अन्तको सब लोम उसके कानमें लग कह देते-पाज अापका कैसा देवीके उद्देश्यसे एक शूकरवलि देते। .... किसी किसी जिलेमें वलिको जीते-जी जला। भाग्य है! मानिकसोरा देवता हमारे सामने पापको
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/७५१
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