पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/७१०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कनफुकवा-कनफुची मन्दिर बना था। किन्तु औरङ्गजेबने उसे भो तोड़ा-। वित् कहते-उच्च पाशाका अनुसरण कर सिक्किो फोड़ा मुसलमानोंका भजनालय निर्माण कराया। चेष्टासे ही मनुष्य उबत होते रहते हैं। किन्तु पन्तको बुद्धनाथ नामक किसी योगीने एक मन्दिर ! चीनावोंको देखनेसे यह विषय नितान्त पमूलक बनवा उसके दक्षिण पशुपतिनाथ नामक शिवलिङ्ग समझ पड़ता है। कारण महामा कनफुचौके शिक्षा-. चौर हनुमान-मन्दिरको प्रतिष्ठा की। यह तीनों बससे वह उच्च प्राथाका नाम नहीं जानते। अधच मन्दिर प्राज भी विद्यमान हैं। तीन सहम वर्ष पहले उक्त महामासे जो उपदेश कनफटे योगी कहते-पाजकल भो भनेक सिद्ध पाया, उसोके अनुसरणसे पूधिवोके मध्य आज भी योगी पृथिवीपर रहते और नाना स्थान घूमते फिरते हैं। उनका दस धार्मिक, साबह और शान्तिप्रिय राजस्थानीय एकलिङ्गके गोस्वामी कनफटोंके कहाया है। महामा कनफुचौ खरके प्रेममें अन्तर्गत हैं। दारपरिग्रहसे दूर रहते भी वह वाणि उदासीन रहने की अपेक्षा मानव जोवनको मनो- • ज्यादि करते हैं। उनके अधीन सैकड़ों योगी हैं। हारिता और चमत्कारिता सम्पादन करनेको हो आवश्यक पानसे वह दल बांध युद्धादि भी करते हैं। मानवका कर्तव्य कर्म समझते थे। यह कहवे कनफुकवा, कनफु'का देखो। रहे,-"अप्रमेय, अचिव एवं वाङ्मनसगोचर कनफका (हि.वि.)१मन्त्रोपदेश करनेवाला, जो ईखरको पानेके लिये वैरागी हो और पितामाता दीक्षा या मन देता हो। २ दीक्षा लेनेवाला, जो बामोय वजन तथा कन्यापुत्र छोड़ नानाविध असम- अपना कान फुका चुका हो। (पु०) गुरु । ४ शिथ। साहिक एवं प्रतिमानुषिक क्रियाकलापक अनुष्ठानको कनफुची ( Confusius)-चौनदेशके एक महात्मा।| अपेक्षा इहजीवनको विचित्रता तथा मनोहारिता हमारे भगवान् मनुको भांति महात्मा कनफुची सम्पादन करना हो खुक्ति सङ्गत है।" महामा चीनदेशक धर्म, राज्य, न्याय एवं पोचार-व्यवहार- कनफुची केवल सदुपदेशक, दार्शनिक, विचक्षण और सकन ही विषयोंके नियम-विधि-प्रतिष्ठाता और नोतिकुशल ही न थे। इनमें यथार्थ व्यक्तित्व और शिक्षादाता रहे। मनु-प्रवर्तित धर्मशास्त्रको शत शत स्वातन्त्रा भी रहा। फिर इनका कार्य प्राचीन कालसे वत्सरका प्राचीन होते भी जैसे हिन्दू शिरोधार्य लोगोंको चमत्कत पौर भक्तिमुग्ध कर हो पर्यवसित समझते, वैसे ही महात्मा कनफुचोके धर्मशास्त्रपर नहीं हुवा। अाज भी इनका कार्य पृथिवीके मध्य पाजतक अक्षय, अव्यय एवं अचल भावसे समान सर्वापेक्षा अधिकांश अधिवासी-समन्वित राज्य में अनुस बलमें चीना चलते हैं। कालके प्रभावसे हिन्दुवाको भावसे फल दे रहा है। इनको प्रवर्तित रोतिनोति । सेतिनीति स्थानविशेषमें मानवशास्त्रसे इन दिनों चीनदेश में बराबर सम्राट और सामान्य भिक्षुक कटक कुछ बदल गयी है। किन्तु महामा कनफुचीका समान सम्मानके साथ प्रतिपासित होते पायी। शास्त्र इतना सर्वकाल एवं सर्वश्रेणीके लोगोंके लिये इनके उपदेशका प्रभाव राज्यके सकल खलमें आज उपयोगी ठहरा, कि तीन सहस्र वर्ष बीतते भी पाज भी उसी प्रबल भावसे पड़ रहा है। उसमें कोई व्यतिक्रम न पड़ा। इनकी प्रदत्त शिक्षाका इन महामाके जन्म लेते समय चौन-सामान्य अक्षय फल लगा है। चीन-जैसे वृहत् साम्राज्यका वर्तमान विस्तारका एक-षष्ठांश मात्र था। राज्यमें कोई सामान्य अधिवासी वह शिक्षा छोड़ अन्य सर्वत्र सामन्तप्रथा प्रचलित रही। उस समय समस्त मत अवलम्बन कर नहीं सका है। इन्हीं की शिक्षाके राज्य १३ प्रधान और अन्यान्य अनेक क्षुद्र खण्डोंमें गुणसे चीनवासी प्राचीन रीतिनीतिपर अचल भक्ति विभक्त था। किन्तु प्राचीन कालको चौन देयमें बरो- रख जगवके मध्य सर्वापचा धर्मप्राय और गृहसाबह। पादि महादेशों की भांति सामन्त-प्रथी न रही। तीन समझ गये हैं। पाचात्य सभ्यताभिमानी उबतितत्त्व- । विषयों में प्रभेद सचित होता था। प्रथमतः सम्माटवंश Vol. III. 178