००६ कनकैया-कनखना कनकैया (हिं. स्त्रो. ) छोटा कनकौवा, गुण्डो। । वाले जपरके पेच लेते हैं। पहले लोग पाय: ढोलसे कनकोद्धव (सं० पु.) महासजवृक्ष, पसनेका पेड़। हो कनकौवा लड़ाते थे। किन्तु आजकच खींचको कनकौवा (हिं. पु.) बड़ा पतङ्गा, बड़ी गुडडो। यह चाल ज्यादा देख पड़ती है। लखनजका कनकौवा पतले कागजका बनता है। कागजको गोल-गोस प्रसित है। कनकौवा की तरहका होता है-सफेद, काट बीच में बांसको एक कुछ मोटो-जैसी खपाच लाल, पीला, नीला, कटारोदार, गिलासदार, प्रधाना लेईके सहारे लगाते हैं। इसका नाम उड्डा है। फिर इत्यादि। दमडीका दमड़ची, छदामका कदमचो, बांसकी दूसरी पतनी खपाच लचाकर कमान-जैसो | धेलेका धेलची, पैसे का पैसै इल, टके का टकैहल और बनाते और गोल कटे कागजके सिरेपर रख दोनों गण्डेका कनकौवा गण्डेइल कहलाता है। ज्यादा कोने लेईमे चपकाते हैं। नोचे दोहरे कागजका एक बडे कनकौवेको भररा कहते हैं। ज़ारदार कन- पत्ता भो लगा दिया जाता है। अपर जहां दोनों कौवेका नाम तुक्कल है। इसे प्रायः नखसे उड़ाते खपाचें मिनती और नीचे पत्तेके पास दो-दो छेद हैं। सन और रेशम मिलाकर बनाया जानेवाली कर सूनको पतली डोरसे कबा बांधते हैं। अपरके डोर नख कहाती है। यह बड़ी मुश्किनसे कटती छेद ऐसे रहते जिसमें डोर डासनेसे दोनों खपाचे है। पहले लाग सूतकी पतलो डोरपर मना चढ़ाते फंस जाती हैं। फिर कनेको डोर बराबर तान थे। किन्तु पाजकल विदेशी रोलके सामने उसे कोई नोचेको एक अङ्गाल बढ़ा गांठ लगा देते हैं। नहीं पूछता। कनकौवा उड़ानेमें बड़ा डर रहता इससे कनकौवा हवा लगनेसे खूब बढ़ता और काट | है। कारण सड़ानेवाले आकायको और ताका चलता है। अन्तको गांठके ऊपर दूसरी डोर बांध | करते और कभी-कभी कोठेसे गिरकर मर मिटते हैं। कनकौवा बढ़ाया जाता है। जिसे अभ्यास रहता, | कनकक (व. पु.) विषविशेष, एक जहर। वह इत्योसे ही कनकौवा बढ़ा सकता है। किन्तु कनखजूरा (हिं• पु०) शतपदी, हज़ार-पा, कनगोजर, नये खेलाडीको ढीलो मंगाना पड़ती है। एक पादमी | कनसलाई ( Centipede)। इसको बाहरो रक्षाको डोरसे बंधे कनकविको दर ले जा और अपर उठा ऊपरी रगों में पथात कोष रहता, जो प्रायः दो अनु- कर छोड़ देता है। उसके ऊपर उठाकर छोड़ते हो बन्धोंसे प्रवल पड़ता है। प्राबन कोणपर शिरःफलक कनकौवा उड़ानेवाला डोरको सानता है। इसीका होता है। इसीमें चक्षु देख पड़ते हैं। कनखजरेके नाम ढीली है। इससे कनकौवा बढ़ने में विलम्ब कई पैर रहते हैं। इनमें कोई छोटा और कोई बड़ा नहीं लगता। डोर दो प्रकारको होती है-एक होता है। इसीसे इसको संस्त्रातमें शतपदो (सकडों सादी और दूसरी मच्नेदार। काचको कूट-पीस और परवाला) और फारमोमें हज़ारपा (हज़रों पैरवाला) सेईमें सान कोई रङ्ग मिलानसे मना बनता है। कहते हैं। इसका पद प्रायः छह खण्ड में विभता है। डोरका एक सिरा किसी चीज़में बांध और दूसरा कनखजरा अपनो टांगोंसे दूसरेका मार और अपने को सिरा बायें हाथमें रख लेईमें सना हुअा काच रगड़नेसे बचा भी सकता है। इसके प्रायः चक्षु न हौं हाते। मचा चढ़ता है। मखा कनकौवा लड़ाने में काम किन्तु जिसके चक्षु रहते, उसके एकसे चालीस तक भाता है। इससे दूसरेका कनकौवा काट देते हैं।। देख पड़ते हैं। यह काट खाता और चिपक भी जिस यन्त्रपर डार चढ़ाकर रखते, उसे दुचका या जाता है। भारतवासी कनखजुरेको ल मोपुव कहते लटाई कहते हैं। हुचका बांसको खपाचोंका बनता हैं। जहां यह निकलता, वहां धनराशि रहने का है। लटाई में सिर्फ लकड़ोके पतले-पतले टुकड़े पनुमान लगता है। कनखजूरे को हिन्दू नहीं मारते । सगते हैं। कनकोवा दो तरहसे सड़ाया जाता है- | कनखना (हिं. क्रि०) अप्रसन्न होना, बुरा मानना, बौचसे पोर ढोखसे। खौंचवाने नोचे और ढोल- कठना।
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