पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६६८

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करठलग्न-कण्ठागत रहता, उसपर कृत्रिम झिल्लीका परदा चढ़ते देख रोगमें पिपासा, कास और खासका वेग बढ़ता है। पड़ता है। यह रोग सहज होने पर पाठ दिनसे इसका नामान्तर गलशुण्डो और तालुशुण्डी है। अधिक नहीं चलता, कठिन होनेसे एक पक्ष रहता चिकित्सा-१ कण्ठशुण्डो रोगमें शोधको छेदन कर है। खास-प्रश्वासका पथ रुक जानेसे दो दिन में ही विकटु, वच, मधु एवं सैन्धव अथवा कुष्ठ, मरिच, मृत्यु आ पड़ता है। सैन्धवलवण, पिप्पलो, पाकनादि तथा गुगगुलु सकल चिकित्सा-२ डाम काष्टिक ६ डाम क्षरित जलमें द्रव्य दारा घिस देना चाहिये। उक्त औषध घृतके घोल प्रातः और सायंकाल रूईसे गलेके भीतर साथ घर्षण और नासिकाके समोपवर्ती स्थानसे रक्त लगाना चाहिये। कोई कोई ट्रङ्ग हाइड्रोक्लोरिक मोक्षण करते हैं। ३ हरसिंघार वृक्षका मूल चबानेसे एसिड १० गुण जलमें मिला प्रलेप चढ़ानेको कहता कण्ठशुण्डी रोग विनष्ट होता है। अतिविषा, है। शिशुको कुल्ला करनेका ज्ञान होनेसे १ डाम पाकनादि, राना, कटुको और निम्बत्वक् सकल टिचर फेरिमिठरियस ४ औंस जलमें मिला व्यवहार ट्रव्यका क्वाथ बना कुल्ला करनेसे कण्ठशुण्डो कट करना चाहिये। ज्वरके समय १ 'द टिचर एको जाती है। (चक्रदत्त) नाइट १ औंस जलमें डाल आध-आध डाम दो-दो कण्ठशदि (सं० स्त्री०) गलका कफादिसे अलिप्तत्व, घण्टे बाद पिलाते हैं। गलेको सफाई। होमिओपाथी-अधिक ज्वर, पवसनता, पङ्गप्रत्यङ्गमें कण्ठशूक, कलशालुक देखो। व्यथा पौर शिर:पीड़ा होनेसे घण्टे या पाध घण्टे के कण्ठयोष (सं-पु.) १पित्तजन्य रोगविशेष, सफरसे अन्तर एकोनाइट दिया जाता है। कण्ठ एवं गल- पैदा होनेवालो एक बीमारो। २ गलको शुष्कता, अन्थि घोर रक्तवर्ण लगने, शोथको चारो पोर फुनसौ गलेको खुश्को। ३ निरर्थक प्रत्यादेश, बेफायदा पडने, गले में खेद निकलने और गन्धयुक्त कफ बढ़नेसे रोक-टाक। मारियास घण्टे-घण्टे पर चलता है। सिवा इसके कण्ठसज्जन (सं० लो०) कण्ठे सज्जनम्, ७-तत्। आसे निक हाइडेष्टिस प्रयोग करते हैं। कण्ठसे लग्न होकर आलिङ्गन, गलेसे मिलकर कण्ठलग्न (सं.वि.) १ कण्ठसे बह, गले में बंधा चिपटाचिपटी। हुआ। २ कण्ठसे लगा हुआ, जो गलेसे चिपटा हो। कण्ठलता (सं. स्त्री०)१ कण्ठभूषण, गलेका गहना। कण्ठसूत्र (सलो .) कण्ठ सूत्र इव, उपमि। २ अश्वबन्धन, अगाडी, घोड़ा बांधनेको रस्मो। १माला, हार। २पालिङ्गन विशेष, किसी किस्मको कण्ठवर्ती (सं.वि.) कण्ठमत, गलेको घेरे हुश्रा। हमागोयो । “यः कुर्वते वचसि वजमस्य स्तनाभिघात निविड़ीपघातात। . परिश्रमातः सनकैर्विदग्धास्तत्कण्ठस्त्र प्रवदन्ति तज्ञ्चाः।" (रतिशास्त्र) कण्ठशालुक (सं. पु.) कण्डगत मुखरोगविशेष, गलेको एक बीमारो। इस रोगमें कफके कोपसे कण्ठ- कण्ठस्थः (सं० त्रि.) कण्ठ तिष्ठति, कण्ठ-रखा-क। मध्य शालुक-कन्दवत् बदरास्थिकी पाक्छति स्वरस्पर्श १ मुख स्थ, जबानो, जो अच्छीतरह याद किया गया हो। २ कण्ठलग्न, गलेसे लमा हुपा। ३गबदेश एवं कठिन ग्रन्थि पड़ जाता है। इससे कण्टक- पर रखा हुपा, जो गलेपर हो। ४ कण्ठस्थानीय. शूकवत् वेदना बढ़ती है। कण्ठशालुक रोग शस्त्र- गलेसे निकलनेवाला। साध्य है। (राजनिघष्ट) कण्ठशुण्डी (सं० स्त्री०) तालुगत मुखरोगविशेष, कण्ठस्थाली (स० स्त्री.) चन्द्रहोपके अन्तर्गत एक मुंहके तालू को एक बीमारी। दूषित कफ और रक्त | प्राचीन महाग्राम। (भविश्य नखस १२१६) तालुमूलमें दीर्घावति पथच वायुपूर्ण मिस्ति-जैसा.जो | कण्डा, कंठा देखो। शोध उठाता, वही रोग कण्ठशण्डी कहाता है। इस ! कण्डामत (सं० वि०) करछे पागतः, तत्।